*अधरं मधुरं वदनम मधुरं नयनं मधुरं हसितम् मधुरं*
देव भूमि जे के न्यूज –
(आचार्य पं. रामचंद्र शर्मा ‘वैदिक’ – विभूति फीचर्स)
श्रीमद्भागवत के दशम स्कंध में योगेश्वर श्रीकृष्ण के जन्म का वैज्ञानिक विवरण प्राप्त होता है। इस विवरण के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण का जन्म भादो मास की अष्टमी को हुआ था। जब चंद्रमा अपने नक्षत्र प्रजापति (रोहिणी) में स्थित था, कृष्ण पक्ष तथा मध्य रात्रि का समय था।
आधुनिक युग में कम्प्यूटर ने गणना कार्य को सरल कर दिया है। काल गणना के लिये काफी शोध कार्य हुए हैं। दक्षिण भारत के डॉ. बी.व्ही. रमन ने इस क्षेत्र में काफी शोध किया है। उनकी गणना के अनुसार 19 जुलाई, 3228 ईसा पूर्व वृषभ लग्न के कर्म नवांश में भगवान श्रीकृष्ण इस पृथ्वी पर अवतरित हुए थे। दिल्ली के कुछ सॉफ्टवेयर निर्माता कालगणना के आधार पर जन्म तारीख ईस पूर्व 21 जुलाई, 3228 निश्चित करते हैं। श्री रमन का मत इस मामले में ज्यादा सही माना जाता है।
वेद प्रतिष्ठानम् इंदौर ने भी सूर्य सिद्धान्त के आधार पर जो ग्रह विवरण निकाला है, वह डॉ. रमन के मत से मेल खाता है तथा अंग्रेजी तारीख 19 जुलाई, 3228 ईसा पूर्व ही जन्म की सही तारीख है। तीनों गणनाओं में यह समानता है कि भगवान का जन्म भाद्र कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को मध्य रात्रि, रोहिणी नक्षत्र, वृषभ लग्न तथा कर्क नवांश में हुआ। गणना के आधार पर यह भी सत्य सामने आया कि योगेश्वर ने 125 वर्ष, 7 माह 10 दिन इस पृथ्वी पर लीला करते हुए ईसा पूर्व 18 फरवरी 3102 को प्रभास क्षेत्र, हिरण्य नदी तट सौराष्ट्र में निजधाम को प्रस्थान किया। 18 फरवरी, 3102 बी.सी. को चैत्र शुक्ल प्रतिपदा थी, इसी दिन से द्वापर युग समाप्त हुआ और कलियुग आरंभ हुआ।
*योगेश्वर की कुण्डली के कुछ महत्वपूर्ण तथ्य*
रोहिणी नक्षत्र चंद्रमा का लक्षण हैं तथा वृषभ राशि चंद्रमा को उच्च स्थिति प्रदान करती है। लग्न पर शनि का भी प्रभाव है। चंद्रमा से मोहक सुन्दरता तथा शनि से नील आभा। शनि-चंद्र का यह संबंध उनकी मोहक सुन्दरता का कारण है। श्री वल्लभाचार्य ने भी मधुराष्टक में लिखा है-
*अधरं मधुरं वदनम मधुरं ,नयनम मधुरं हसितम् मधुरं, हृदयम् मधुरं गमनं मधुरं, मधुराधिपतेरखिलम मधुरं*
देवकी एवं वासुदेव के पुत्र भगवान श्रीकृष्ण की कुण्डली का पंचम भाव उच्च राशि के बुध के कारण अत्यंत शक्तिशाली है।
बुद्धि, निर्णय क्षमता तथा ज्ञान का भाव है। यह उच्च का बुध उन्हें उच्च श्रेणी का बुद्धिमान तथा कुशल प्रबंधक बनाता है। यह बुधवाणी का भी कारक है। इसी बुध के कारण श्रीमद् भागवत गीता के उपदेश साधारण मानव तक पहुंच पाये। पराक्रम भाव में नीच राशि का मंगल तथा उस पर राहु-केतु का प्रभाव। यह योग उनके विरुद्ध बार-बार षड्यंत्र कराता रहा।
मंगल उत्तम नेतृत्व के गुण तथा जनकल्याण से जोड़ता है।
वृहस्पति जनसामान्य में ज्ञान की गंगा प्रवाहित करने में सहायक है। धर्म, कर्म, योग एवं धर्माचरण करने वालों का संरक्षण करने जैसे ईश्वरीय गुण इसी योग का प्रतिफल हैं। छठा स्थान शत्रुओं तथा मामा का है। शुक्र इस भाव के साथ लग्न का भी स्वामी है। मंगल के छठे, नवम् व दशम् भाव पर प्रभाव के कारण उन्होंने शत्रुओं को पराजित किया तथा मामा के आतंक का नाश किया। दशम् भाव पर मंगल एवं बृहस्पति का प्रभाव है। अत: उन्होंने धर्मयुक्त सत्ता का समर्थन किया। कर्म की प्रेरणा की तथा धर्मायुक्त सत्ता की रक्षा के लिये अर्जुन को युद्ध के निश्चय की प्रेरणा भी दी।
फलित ज्योतिष की मान्यता है कि पराक्रम भाव में तृतीय भाव में नीच का मंगल स्थित हो और राहु-केतु का प्रभाव हो तो जातक को कोई भाई नहीं होता। पौराणिक मान्यता है कि मामा कंस ने छोटे भाई-बहनों का वध कर दिया था। फलित ज्योतिष का यह भी सिद्धान्त है कि सूर्य पर शनि का प्रभाव हो, विशेष रूप से केन्द्र भावों पर तो जातक को पिता से दूर रहना होता है। अत: माता-पिता दोनों से दूर पालन-पोषण हुआ। भगवान श्रीकृष्ण का जन्म चंद्रमा की महादशा में हुआ। पाराशरीर मत से विशोतरी महादशा क्रम 120 वर्ष का होता है, जो योगेश्वर ने अपनी लीला से इस पृथ्वी पर व्यतीत किया।
मंगल की महादशा में मारक शुक्र की अंतरदशा में उन्होंने अपने लोक को प्रस्थान किया। शुक्र-मंगल का योग तथा मोक्षकारक केतु-राहु से संबंध इस संदर्भ में विशेष रूप से विचारणीय हैं। श्रीकृष्ण ईश्वर हैं, पूर्ण अवतार से। यह तथ्य, कुण्डली से प्राप्त होता है। पुराणों में वर्णित काल विवरण, ग्रहयोग, नक्षत्र तथा युगों का आरंभ व अंत समय आज गणनाओं के माध्यम से परखा जा सकता है। श्रीकृष्ण ऐतिहासिक वास्तविकता थे। गणनाओं ने आज इसे पूर्ण रूप से स्वीकार भी किया है। गणना यह भी सिद्ध करती है कि भारतीय अवतारों की धारणा भी पूर्ण सत्य है। (विभूति फीचर्स)
*निष्काम कर्मयोगी भगवान श्रीकृष्ण*
(डॉ. मुकेश कबीर – विभूति फीचर्स)
भगवान श्रीकृष्ण को ज्यादातर प्रेम के प्रतीक के रूप में पूजा गया जबकि प्रेम के अलावा भी श्रीकृष्ण बहुत विराट हैं पूर्ण पुरुषोत्तम हैं। बेशक प्रेम उनका स्वभाव है इसीलिए उनका प्रेम इतना विशाल इतना अनंत है कि वे सम्पूर्ण कलाओं के स्वामी बन सके और हर कला में पूर्ण। श्रीकृष्ण जितने अच्छे प्रेमी हैं उतने ही अच्छे कूटनीतिज्ञ हैं। जितने अच्छे संगीतकार हैं उतने ही महान योद्धा हैं और जितने समर्पित रसिया हैं उतने ही समर्पित कर्मयोगी लेकिन श्रीकृष्ण के कर्मयोगी स्वरूप की चर्चा कम होती है। ज्यादातर कवि और कथाकार श्रीकृष्ण के प्रेमी रूप को महिमा मंडित करते रहे और उनको रासबिहारी ही बना दिया गया। श्रीकृष्ण से हमें सिर्फ प्रेम नहीं सीखना था बल्कि कर्म सीखना था, निष्काम कर्म सीखना चाहिए था तभी दुनिया से अन्याय और अधर्म समाप्त होता लेकिन हुआ उल्टा जब हम प्रेम करते हैं तो परिणाम की चिंता नहीं करते लेकिन कर्म तभी करते हैं जब उसमेें कोई फायदा हो, हमारे कर्म रिजल्ट ओरिएंटेड हो गए इसीलिए सारा तनाव और फसाद जीवन में आया। कृष्ण के जीवन को देखें तो उन्होंने जो भी किया उससे उन्हें कभी कोई व्यक्तिगत फायदा नहीं हुआ लेकिन फिर भी वे अथक, अनवरत कर्म करते रहे और उनके जीवन में कभी अवसाद और आलस्य भी नहीं रहा चाहे परिणाम विपरीत रहा हो। गीता में वे कहते भी हैं कि ”मुझे कुछ भी वस्तु प्राप्त करने की जरूरत नहीं है फिर भी मैं कर्म करता हूं, सारी दुनिया में जो कुछ भी होता है वो सब मेरे पास है फिर भी मैं कर्म करता हूं।”
श्रीकृष्ण सिर्फ कर्मयोगी नहीं हैं बल्कि निष्काम कर्मयोगी हैं, कर्मो में न उनको आसक्ति है न विरक्ति बल्कि अनासक्ति है यही कारण है कि उनके जीवन में किसी भी तरह का अहंकार नहीं रहा और उन्होंने छोटे बड़े काम में भेद नहीं किया, राजा होने के बाद भी उन्होंने सारथी बनना स्वीकार किया और मान अपमान से परे होकर युद्ध में हथियार न उठाने की प्रतिज्ञा भी तोड़ी यह उनका अर्जुन और भीष्म के प्रति प्रेम भी था। अपने युग के सबसे बड़े योद्धा और परम प्रतापी होने पर भी उन्होंने युद्ध से भागने से भी गुरेज नहीं किया, उनको रणछोड़ कहा गया लेकिन उन्होंने इसे सहर्ष स्वीकार किया क्योंकि तब यही उचित था ,कालांतर में हमने यह भी देखा कि बहुत सी सेनाएं इसलिए युद्ध हार गईं क्योंकि उन्होंने वक्त पर पलायन नहीं किया और विपरीत हाल में भी युद्ध में डटे रहे, यह वीर का लक्षण तो है लेकिन कूटनीतिज्ञ का नहीं। श्री कृष्ण की कूटनीति देखिए कि युद्ध से भागकर भी युद्ध नहीं छोड़ा बल्कि सही समय का इंतजार किया और आखिर में जरासंध को समूल नष्ट किया ही। श्रीकृष्ण का युद्ध छोडऩा न तो किसी तरह का डर है और न पराजय वे जय पराजय से ऊपर उठकर लडऩे वाले योद्धा हैं तभी उन्होंने युद्ध से पलायन करने वाले अर्जुन को रोका और अंत तक युद्ध लडऩे को प्रेरित किया, यह काम कोई रणछोड़ नहीं कर सकता बल्कि एक कुशल राजनीतिज्ञ ही कर सकता है,ऐसा ही विरोधाभासी व्यक्तित्व है कृष्ण का इसीलिए वो पूर्ण है। गीता के अनुसार वे जय भी हैं पराजय भी, सत्य भी हैं और असत्य भी वे पाप भी करते हैं पुण्य भी इसीलिए इनको वरदान भी मिलते हैं और शाप भी लेकिन फिर भी उनके मन में कोई दुख, ग्लानि,कोई संदेह,कोई अहंकार नहीं सिर्फ अपने प्रत्यक्ष काम के प्रति पूर्ण समर्पित परिणाम की चिंता किए बिना ,परिणाम अनुकूल हो या प्रतिकूल दोनों में उतने ही खुश क्योंकि वे निष्काम कर्मयोगी हैं इसीलिए उनके जीवन में अवसाद का स्थान नहीं है। यह निष्काम कर्मयोग ही हमेें सीखना था कृष्ण से लेकिन इसकी चर्चा साहित्य में कम मिलती है और उनके रास की चर्चा ज्यादा मिलती है,यही हाल कथाकारों का है,कथा पंडालों में कृष्ण के विवाह को ज्यादा प्रमुखता दी जाती है। उनके त्याग, संघर्ष की चर्चा नहीं होती यही कारण है कि हम कृष्ण के संघर्ष को लगभग भूल ही चुके हैं जबकि सृष्टि में अकेले कृष्ण ही हैं जिनका जन्मदिन से ही संघर्ष शुरू हो गया था, वे कभी नाजों में नहीं पले और न ही छप्पन भोग से बड़े हुए बल्कि माखन, मिश्री, मूंगफली और चने खाकर भी राज कुमारों की तरह शान से रहे। उनका भोग से ज्यादा ध्यान कर्तव्य पर रहा, जनसेवा और जनकल्याण पर रहा। उनके बचपन को छोड़ दें तो उनके पास रास रचाने का उतना वक्त ही नहीं था जितना हमने रास की चर्चाएं की हैं ,उनकी व्यस्तता का अंदाज इस बात से लगा लीजिए कि युद्ध से पहले जब वे भीम की पत्नी हिडिंबा से मिलने गए तब उन्होंने व्यस्तता के कारण हिडिंबा के घर भोजन भी नहीं किया था और घटोत्कच को युद्ध की सूचना देकर तुरंत निकल गए,महाभारत की क्षेपक कथाओं में इसका उल्लेख मिलता है। महाभारत के युद्ध को भी सिर्फ कुरुक्षेत्र तक ही सीमित समझा और समझाया गया जबकि युद्ध से पूर्व श्रीकृष्ण ने दिन रात कितनी यात्राएं की इसका जिक्र कथावाचक नहीं करते, जिसे आज की भाषा में फील्डिंग कहा जाता है युद्ध के लिए वो फील्डिंग अकेले कृष्ण ने ही की थी,उनके कहने से ही कई राजा पांडवों के समर्थन में आए थे और युद्ध में भोजन का प्रबंध भी कृष्ण ने ही करवाया था, खाने के लिए उडुपी की ड्यूटी उन्होंने ही लगाई थी और खास बात यह है कि उन्होंने दोनों सेनाओं के भोजन का प्रबंध किया था। युद्ध में सबसे ज्यादा मेहनत, संघर्ष, सक्रियता, प्लानिंग कृष्ण की ही थी लेकिन इसकी चर्चा कम होती है।
कृष्ण कितने महान कर्मयोगी थे कैसे निष्काम कर्मयोगी थे कि खुद सर्व समर्थ होने के बाद भी उन्होंने देश का सम्राट युधिष्ठिर को बनाया और खुद एक छोटे राज्य के राजा बने रहे क्योंकि उनके जीवन में श्रेय का महत्व नहीं रहा, क्रेडिट लेने में उनकी रुचि नहीं रही सिर्फ कर्म करने में लगे रहे इसीलिए श्रीकृष्ण हर हाल में प्रसन्न रहे और यही प्रेरणा उन्होंने गीता के माध्यम से दुनिया को दी है। बस जरूरत है रास बिहारी के विश्वरूप को समझने की और समझाने की, क्योंकि श्रीकृष्ण पूर्ण ब्रह्म हैं वे सिर्फ राधा रमण या गोपी बल्लभ नहीं हैं, वे तो जगतपति हैं… जय श्री कृष्णा। (विनायक फीचर्स)
पुस्तक चर्चा
*श्रीमदभगवदगीता हिन्दी पद्यानुवाद*
(विवेक रंजन श्रीवास्तव – विनायक फीचर्स)
श्रीमदभगवदगीता एक सार्वकालिक ग्रंथ है। इसमें जीवन के मैनेजमेंट की गूढ़ शिक्षा है। आज संस्कृत समझने वाले कम होते जा रहे हैं, पर गीता में सबकी रुचि सदैव बनी रहेगी, अत: संस्कृत न समझने वाले हिन्दी पाठको को गीता का वही काव्यगत आनन्द यथावथ मिल सके इस उद्देश्य से प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध ने मूल संस्कृत श्लोक, फिर उनके द्वारा किये गये काव्य अनुवाद तथा शलोकश: ही शब्दार्थ पहले हिंदी में फिर अंग्रेजी में प्रस्तुत किया है। उम्दा कागज व अच्छी प्रिंटिंग के साथ यह बहुमूल्य कृति भोपाल के ज्ञान मुद्रा पब्लीकेशन ने पुन: प्रस्तुत किया है। अनेक शालेय व विश्वविद्यालयीन पाठ्यक्रमों में गीता के अध्ययन को शामिल किया गया है, उन छात्रो के लिये यह कृति बहुउपयोगी बन पड़ी है।
भगवान कृष्ण ने द्वापर युग के समापन तथा कलियुग आगमन के पूर्व (आज से पांच हजार वर्ष पूर्व) कुरूक्षेत्र के रणांगण मे दिग्भ्रमित अर्जुन को, जब महाभारत युद्ध आरंभ होने के समस्त संकेत योद्धाओ को मिल चुके थे, गीता के माध्यम से ये अमर संदेश दिये थे व जीवन के मर्म की व्याख्या की थी। श्रीमदभगवदगीता का भाष्य वास्तव में महाभारत है। गीता को स्पष्टत: समझने के लिये गीता के साथ ही महाभारत को पढऩा और हृदयंगम करना भी आवश्यक है। महाभारत तो भारतवर्ष का क्या? विश्व का इतिहास है। ऐतिहासिक एवं तत्कालीन घटित घटनाओं के संदर्भ मे झांककर ही श्रीमद्भगवदगीता के विविध दार्शनिक-आध्यात्मिक व धार्मिक पक्षो को व्यवस्थित ढंग से समझा जा सकता है।
जहां भीषण युद्ध, मारकाट, रक्तपात और चीत्कार का भयानक वातावरण उपस्थित हो वहां गीत-संगीत-कला-भाव-अपना-पराया सब कुछ विस्मृत हो जाता है फिर ऐसी विषम परिस्थिति में गीत या संगीत की कल्पना बडी विसंगति जान पडती है। क्या रूद में संगीत संभव है? एकदम असंभव किंतु यह संभव हुआ है- तभी तो- गीता सुगीता कर्तव्य यह गीता के माहात्म्य में कहा गया है। अत: संस्कृत में लिखे गये गीता के श्लोको का पठन-पाठन भारत में जन्मे प्रत्येक भारतीय के लिये अनिवार्य है। संस्कृत भाषा का जिन्हें ज्ञान नहीं है- उन्हे भी कम से कम गीता और महाभारत ग्रंथ क्या है? कैसे है? इनके पढने से जीवन मे क्या लाभ है? यही जानने और समझने के लिये भावुक हृदय कवियो साहित्यकारो और मनीषियों ने समय-समय पर साहित्यिक श्रम कर कठिन किंतु जीवनोपयोगी संस्कृत भाषा के सूत्रो (श्लोकों) का पद्यानुवाद किया है, और जीवनोपयोगी ग्रंथो को युगानुकूल सरल करने का प्रयास किया है।
इसी क्रम में साहित्य मनीषी कविश्रेष्ठ प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव जी विदग्ध ने जो न केवल भारतीय साहित्य-शास्त्रो धर्मग्रंथो के अध्येता हैं बल्कि एक कुशल अध्येता भी हैं स्वभाव से कोमल भावों के भावुक कवि भी है। निरंतर साहित्य अनुशीलन की प्रवृत्ति के कारण विभिन्न संस्कृत कवियों की साहित्य रचनाओं पर हिंदी पद्यानुवाद भी आपने प्रस्तुत किया है। महाकवि कालिदास कृत मेघदूतम् व रघुवंशम् काव्य का आपका पद्यानुवाद दृष्टव्य, पठनीय व मनन योग्य है। गीता के विभिन्न पक्षों जिन्हे योग कहा गया है जैसे विषाद योग जब विषाद स्वगत होता है तो यह जीव के संताप में वृद्धि ही करता है और उसके हृदय मे अशांति की सृष्टि का निर्माण करता है जिससे जीवन में आकुलता, व्याकुलता और भयाकुलता उत्पन्न होती हैं परंतु जब जीव अपने विषाद को परमात्मा के समक्ष प्रकट कर विषाद को ईश्वर से जोडता है तो वह विषाद योग बनकर योग की सृष्टि श्रृंखला का निर्माण करता है और इस प्रकार ध्यान योग, ज्ञान योग, कर्म योग, भक्तियोग, उपासना योग, ज्ञान कर्म सन्यास योग, विभूति योग, विश्वरूप दर्शन विराट योग, सन्यास योग, विज्ञान योग, शरणागत योग, आदि मार्गो से होता हुआ मोक्ष सन्यास योग प्रकारातंर से है, तो विषाद योग से प्रसाद योग तक यात्रा संपन्न करता है।
इसी दृष्टि से गीता का स्वाध्याय हम सबके लिये उपयोगी सिद्ध होता हैं। अनुवाद में प्राय: दोहे को छंद के रूप में प्रयोग किया गया है। कुछ अनुदित अंश बानगी के रूप में इस तरह हैं।
अध्याय 5 से…
नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित्? ।
पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपंश्वसन्?॥
प्रलपन्विसृजन्गृöन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ॥
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्? ॥
स्वयं इंद्रियां कर्मरत,करता यह अनुमान
चलते,सुनते,देखते ऐसा करता भान।।8।।
सोते, हँसते, बोलते,करते कुछ भी काम
भिन्न मानता इंद्रियाँ भिन्न आत्मा राम।।9।।
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्?।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति॥
हितकारी संसार का,तप यज्ञों का प्राण
जो मुझको भजते सदा,सच उनका कल्याण।।29।।
अध्याय 9 से ..
अहं क्रतुरहं यज्ञ: स्वधाहमहमौषधम्?।
मंत्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्?॥
मै ही कृति हूँ यज्ञ हूँ,स्वधा,मंत्र,घृत अग्नि
औषध भी मैं,हवन मैं, प्रबल जैसे जमदाग्नि।।16।।
इस तरह प्रो श्रीवास्तव ने श्रीमदभगवदगीता के श्लोको का पद्यानुवाद कर हिंदी भाषा के प्रति अपना अनुराग तो व्यक्त किया ही है किंतु इससे भी अधिक सर्व साधारण के लिये गीता के दुरूह श्लोकों को सरल कर बोधगम्य बना दिया है .गीता के प्रति गीता प्रेमियों की अभिरूचि का विशेष ध्यान रखा है । गीता के सिद्धांतो को समझने में साधकों को इससे बडी सहायता मिलेगी, ऐसा मेरा विश्वास है। अनुवाद बहुत सुदंर है। शब्द या भावगत कोई विसंगति नहीं है। अन्य गीता के अनुवाद या व्याख्यायें भी अनेक विद्वानों ने की हैं पर इनमें लेखक स्वयं अपनी संमति समाहित करते मिलते हैं जबकि सम्मति अनुवाद की विशेषता यह है कि प्रो. श्रीवास्तव द्वारा ग्रंथ के मूल भावो की पूर्ण रक्षा की गई है। (विनायक फीचर्स)