उत्तराखंडधर्म-कर्म

*चातुर्मास में भगवान विष्णु एवं महादेव शिव की उपासना*


-(अंजनी सक्सेना)

चातुर्मास यानि आषाढ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी तक का समय सब पापों का नाश करने वाला है। स्कंद‌पुराण में कहा गया है कि इस अवधि में जो भी मनुष्य भगवान शिव अथवा विष्णु या दोनों को अपने हृदय में स्थापित करके अभेद बुद्धि से उनका चिंतन, स्मरण एवं उपासना करता है वह मनुष्य सब पाप कर्मों से मुक्त हो जाता है तथा उसके लिए अपना शत्रु भी अत्यंत प्रिय हो जाता है। चातुर्मास में भगवान विष्णु एवं महादेव शंकर का व्रत करने वाला मनुष्य उत्तम माना गया है। इस अवधि में भगवान विष्णु की शालग्राम स्वरूप ,भगवान शिव की नर्मदेश्वर स्वरूप और दोनों की संयुक्त रूप से हरिहर स्वरूप में आराधना करने का विधान है।

चातुर्मास में भगवान श्री हरि विष्णु की एवं देवाधिदेव महादेव की भक्ति करना श्रेयस्कर माना गया है । चातुर्मास में स्नान का भी महत्व है। स्कंद पुराण के अनुसार चातुर्मास में नदी में स्नान करने वाले को सिद्धि प्राप्त होती है।झरने, तालाब या बावड़ी में स्नान करने वाले के हजारों पाप तत्काल नष्ट हो जाते हैं। जो मनुष्य चातुर्मास में पुष्कर, प्रयाग या किसी और महातीर्थ के जल में स्नान करता है उसके पुण्यों की संख्या में बढ़ोतरी होती है। नर्मदा नदी, सरस्वती नदी या समुद्र संगम में यदि कोई व्यक्ति चातुर्मास में एक दिन स्नान कर ले तो उसके समस्त पाप समाप्त हो जाते हैं। जो व्यक्ति चातुर्मास में नियम से एकाग्रचित्त होकर तीन दिन भी नर्मदा स्नान कर लेता है तो उसके पाप के हजारों लाखों टुकड़े हो जाते हैं। जो मनुष्य सूर्योदय के समय चातुर्मास में पंद्रह दिन निरंतर गोदावरी नदी में स्नान करता है वह इस लोक में सारे सुख पाकर भगवान विष्णु के धाम जाता है। जो मनुष्य तीर्थस्थल न जा सके वह भी यदि तिल एवं आंवला मिश्रित जल या फिर जल में बिल्व पत्र डालकर स्नान करें तो उनके भी समस्त पापों का शमन हो जाता है। बिना स्नान के इस अवधि में कोई कार्य नहीं करना चाहिए। बिना स्नान किए जो भी पुण्य कर्म एवं शुभकर्म किए जाते हैं वे निष्फल हो जाते हैं। ऐसे में किए गए सभी पुण्य कार्यों का फल राक्षसों द्वारा ग्रहण कर लिया जाता है।

चातुर्मास में स्नान के अंत में भगवान श्री हरि का स्मरण करके पित्रों का तर्पण करने से अनंत फल की प्राप्ति होती है। पित्र तर्पण के बाद षोडशोपचार से भगवान विष्णु की पूजा की जाती है। भगवान के शयन करने पर उनकी षोडशोपचार पूजा महातप के समान मानी जाती है। भगवान विष्णु की प्रतिमा या शालग्राम शिला स्थापित कर के यजुर्वेद के सोलह ऋचाओं वाले महासूक्त पुरुषसूक्त की प्रथम ऋचा”सहस्त्राशीर्षा पुरुष:”मंत्र के आदि में ऊंकार जोड़कर भगवान श्री हरि का आवाहन किया जाता है। दूसरी ऋचा ‘पुरुष एवेदम्’ से श्री हरि को आसन समर्पित किया जाता है। तीसरी ऋचा से पाद्य, चौथी ऋचा से अर्घ्य, पांचवी ऋचा से आचमन, छठी ऋचा से स्नान कराकर पुनः आचमन करना चाहिए। सातवीं ऋचा से भगवान श्री हरि को वस्त्र, आठवीं से यज्ञोपवीत, नौवीं ऋचा से चंदन, दसवीं से पुष्प, ग्यारहवीं से भगवान श्री हरि को धूप अर्पित करना चाहिए। चातुर्मास में भगवान श्री हरि को कपूर, चंदन दल, मिश्री, मधु (शहद) और जटामासी से युक्त अगरु की धूप अर्पित करना चाहिए। बारहवीं ऋचा से भगवान श्री हरि को दीपदान करना चाहिए। चातुर्मास में जो मनुष्य भगवान विष्णु के आगे दीपदान करता है उसके सारे पाप क्षणभर में जलकर भस्म हो जाते है।
दीपदान के बाद तेरहवीं ऋचा के साथ भगवान विष्णु को अन्न युक्त नैवेद्य अर्पित करना चाहिए। चौदहवीं ऋचा से आरती करके पंद्रहवी ऋचा द्वारा ब्राह्मणों के साथ भगवान के चारों ओर घूमकर परिक्रमा करनी चाहिए। अंत में सोलहवीं ऋचा द्वारा भगवान विष्णु के साथ अपनी एकता का चिंतन करना चाहिए।

स्कंद पुराण के अनुसार एक बार भगवान शिव ने अपने भक्तों के सामने परम अद्‌भुत रूप धारण कर लिया | उनका यह रूप हरिहर स्वरूप था। वे आधे शरीर से शिव और आधे शरीर से विष्णु हो गये। उनके एक ओर भगवान विष्णु के चिन्ह तथा दूसरी ओर भगवान शंकर के चिन्ह दिखाई देने लगे। विष्णु के चिन्ह की ओर वाले शरीर के पास गरुड़ और महादेव के चिन्ह वाले शरीर के पास नन्दी (वृषभ) विराजित थे। एक ओर बादलों के समान श्याम वर्ण तो दूसरी ओर कर्पूर की भाँति गौर वर्ण दृश्यमान था। भगवान श्री हरि विष्णु और देवाधिदेव महादेव एक ही शरीर में समाविष्ट होकर दिखाई देने लगे और मन्दराचल पर्वत पर हरिहर स्वरूप में प्रतिष्ठापित हो गए। चातुर्मास में इस हरिहर मूर्ति का स्मरण मात्र करने से मनुष्य का कल्याण हो जाता है।
जिस प्रकार गण्डकी नदी में भगवान विष्णु शालग्राम रूप में मिलते हैं उसी प्रकारा नर्मदा नदी में भगवान महादेव नर्मदेश्वर के रूप में विराजमान हैं। ये दोनों स्वयं प्रकट होते हैं। स्वयं देवाधिदेव महादेव ने माता पार्वती से चातुर्मास में “नमो भगवते वासुदेवाय” मंत्र का जप करने की प्रेरणा दी। माता पार्वती ने हिमालय के सुंदर शिखर पर चातुर्मास तपस्या के लिए प्रस्थान किया, तब महादेव जी पृथ्वी पर विचरण करने लगे । यमुना जी के जल में स्नान करके महादेव जी ने यमुना जी को वरदान दिया कि उनके पुण्य तीर्थ में स्नान करने वाले के सहस्त्रों पाप क्षण भर में नष्ट हो जाएंगे और वह स्थान हर तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध होगा।वरदान देकर देवाधिदेव महादेव हाथ में वाद्य यंत्र , शिखर पर जटा और ललाट में त्रिपुण्ड धारण करके गीत गाते और नाचते चले जा रहे थे । इस पर मुनियों ने क्रोधित होकर महादेव जी को लिंगरूप में होने का श्राप दे दिया। भगवान शंकर का यह रूप अमरकंटक में पर्वत के रूप में प्रकट हुआ। यहीं से नर्मदा नदी निकली।

स्कंद पुराण के अनुसार नर्मदा में स्नान करके, उसका जल पीकर और उसके जल से पित्रों का तर्पण करके मनुष्य इस पृथ्वी पर दुर्लभ कामनाओं को भी प्राप्त कर लेता है। जो मनुष्य नर्मदा में स्थित शिवलिंगो का पूजन करेंगे वे स्वयं शिवस्वरूप हो जाएंगे। विशेष रूप से चातुर्मास में शिवलिंग की पूजा महान फल देने वाली है। चातुर्मास में रुद्रमंत्र का जाप, शिव की पूजा, और शिव में अनुराग विशेष रूप से फलदायी है। जो मनुष्य चतुर्मास में पंचामृत से भगवान शिव को स्नान कराते है उन्हें गर्भ की वेदना सहन नहीं करना पड़ती। जो शिवलिंग के मस्तक पर मधु (शहद) से अभिषेक करेंगें उनके सहस्त्रों दुख तत्काल नष्ट हो जाएंगे। जो दीपदान करेंगे वे शिवलोक जाएंगे। जो जलधारा से युक्त नर्मदेश्वर महालिंग का चातुर्मास में विधिपूर्वक पूजन करता है, वह शिवस्वरूप हो जाता है।
स्कंद पुराण के अनुसार स्वयं ऋषि गालव जी ने कहा है कि चातुर्मास में शिव और विष्णु दोनों की भक्तिपूर्वक पूजन करना चाहिए जो शालग्राम रूपी हरि और नर्मदेश्वर रूप में हर (शिव) की पूजा करते है भगवान श्री हरि उन्हें मोक्ष प्रदान करते हैं।(विभूति फीचर्स)

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