अंतर्राष्ट्रीय

*शिक्षक, आचार्य, गुरु एवं सद्गुरु*

देव भूमि जे के न्यूज।
(ईश्वर शरण पाण्डेय- विनायक फीचर्स)

शिक्षक, आचार्य, गुरु एवं सद्गुरु समाज के दिव्य प्रकाश-स्त्रोत होते हैं। वे ज्ञान एवं चेतना की एक अवस्था विशेष, के दिव्य प्रतीक-प्रतिनिधि हैं। कला सिखाने वाला शिक्षक, जिंदगी सिखाने वाला आचार्य, चेतना के गहन मर्म से परिचित कराने वाला गुरु एवं शिष्य को अपने में मिला लेने वाला तत्व सद्गुरु कहलाता है। ये चारों तत्त्व आपस में घुले-मिले तो हैं, पर एक नहीं है। हर एक की अपनी सीमा एवं सामथ्र्य होती है, परंतु अनगढ़ व्यक्तित्व को सुधार-संभालकर भौतिक एवं आत्मिक रूप से परिपूर्ण करने में इनका अपना-अपना मौलिक योगदान रहता है।
शिक्षक ज्ञान की किसी कुशलता का विशेषज्ञ होता है। वह कुशलता के विशेष आयामों को खोलता एवं अनावृत्त करता है। उसको अपने विषय विशेष का विशेष एवं गंभीर ज्ञान होता है। शिक्षक को अपने विषय का गहरा अनुभव होता है और वह इस अनुभव का स्पर्श विद्यार्थी को भी करा देता है। शिक्षक में शिक्षार्थी के भीतर कुशलता को विकसित करने की अपार क्षमता होती है। उसमें शिक्षार्थी को अपने जैसा तथा अपने से भी बेहतर एवं निष्णात बना देने की कला होती है। साधारण से छात्र को अत्यंत प्रतिभावान शोधार्थी के रूप में गढ़ देने की विशेषता शिक्षक में होती है। शिक्षक ज्ञान का समुद्र होता है, जिसमें कला-कुशलताएं उद्दाम लहरों की भांति उफनती-उमड़ती रहती है। वह शिक्षार्थी के जीवन में इन कुशलताओं की बाढ़ ला देता है। वह उसे असाधारण प्रतिभा से निष्णात एवं पारंगत कर देता है। इस प्रकार शिक्षक ज्ञान का, कुशलता का बोध कराता है, परंतु जहां जिंदगी जीने की कला सिखाने की बारी आती है, शिक्षक असहाय और असमर्थ हो जाता है।
इस बिंदु पर उसकी सारी सीमाएं समाप्त हो जाती हैं, क्योंकि वह इस विषय से अनभिज्ञ एवं अपरिचित-सा होता है। सर्जन अपने ऑपरेशन थिएटर में सर्जरी का ज्ञान देता है, परंतु जिंदगी की सर्जरी की कला नहीं बता पाता। यह थोड़ा कठिन है, क्योंकि जिंदगी जीकर ही सीखी जा सकती है। स्वयं के व्यक्तित्व को परिष्कृत, परिमार्जित करके ही दूसरों के व्यक्तित्व को गढ़ा जा सकता है।
आज समाज, राष्ट्र और विश्व में प्रतिभाओं की कमी और अभाव नहीं है। मेडिकल, टेक्नीकल, प्रोफेशनल कॉलेजों से अव्वल दर्जे में निकलने वाले प्रतिभावान छात्रों की कमी नहीं है और न ही पब्लिक कॉर्पोरेट सेक्टर एवं प्रोफेशनल कॉलेजों में एक्जीक्यूटिव ऑफिसर एवं प्रोफेसरों का अभाव है। परंतु ये विशेषज्ञ शिक्षक एवं प्रतिभाशाली छात्र दोनों ही जिंदगी जीने के मामले में दुर्बल एवं कमजोर हैं। इनका आंतरिक व्यक्तित्व बिखरा, धुंधला एवं खोखला-सा दिखाई देता है। ये किसी गहरी प्यास से प्यासे लगते हैं। इनकी भावना भटकी हुई, अतृप्त एवं अनबुझी होती है। इन्हें बौद्धिकता तो मिली, परंतु अनुभव नहीं मिला, प्रवीणता तो प्राप्त हुई, परंतु व्यक्तित्व नहीं संवरा और न अनुभव कराने वाला, संभालने वाला आचार्यरुपी शिक्षक मिला।
शिक्षक आचार्य नहीं होते। आचार्य शिक्षक का पर्याय भी नहीं है और हो भी नहीं सकता, परंतु आचार्य शिक्षक भी हो सकता है, क्योंकि वह व्यक्तित्व गढऩे के साथ-साथ कला-कुशलता भी सिखा सकता है। आचार्य को व्यक्तित्व के विभिन्न आयामों की गहरी समझ एवं बोध होता है और इसी कारण वह व्यक्तित्व को संभाल-निखार सकता है।
आचार्य की वाणीभर नहीं बोलती, उसका आचरण उससे भी अधिक मुखर होकर बोलता है। वाणी की पहुंच कानों तक ही सीमित होती है, परंतु आचरण प्राणों तक अपनी पहुंच बनाता है। आचार्य विचारों का संप्रेषण भर नहीं करता, साथ ही अनुभव प्रदान कर उनमें प्राणों को घोलता है। आचार्य मात्र विचार ही नहीं, गहन अनुभव के निष्कर्ष से प्राप्त आचरण भी प्रदान करता है।
आचार्य को सहज अनुभव प्राप्त होता है कि विचार से व्यवहार तक की महायात्रा कितनी कठिन, कितनी दुष्कर और कितनी भीषण होती है। विचारों को व्यवहार और आचरण से उतारने का पुरुषार्थ कितना श्रमसाध्य, कष्टसाध्य और समयसाध्य है, आचार्य इससे भलीभांति परिचित होता है। आचार्य सद्विचार को सद्व्यवहार के रूप में परिवर्तित कर नई सृष्टि करता है, नूतन सृजन करता है।
आचार्य का ज्ञान बड़ा ही पारदर्शी होता है। वह व्यक्तित्व निर्माण की समग्र प्रविधियों का कुशल विशेषज्ञ होता है। वह बखूबी जानता है कि कैसे संस्कारों, आदतों, वृत्तियों आदि की दुर्बलताओं को हटाया-मिटाया जाए तथा इनके स्थान पर सदाचार, सद्विचार तथा सद्प्रवृत्ति की स्थापना की जाए। आचार्य व्यक्तित्व निर्माण की सूक्ष्म सर्जरी का सर्जन होता है। उसे इसके मर्म का गहरा बोध होता है। सैद्धांतिक के साथ-साथ उसे व्यावहारिक ज्ञान भी होता है।
चाणक्य आचार्य थे, चंद्रगुप्त को उन्होंने उसके व्यक्तित्व का बोध करा दिया था, उसके अनगढ़-अपरिष्कृत व्यक्तितव को गढ़ दिया था। आचार्य चाणक्य राजनीति के शिक्षक थे और चंद्रगुप्त को राजनीति ज्ञान से सराबोर कर दिया था। आचार्य जीवन के मर्म को जानता है। आई.सी.एस. की नौकरी को तिलांजलि देने वाले श्री अरविंद सही मायने में आचार्य थे, जो अपने विद्यार्थियों में प्राण भरते थे, उनके व्यक्तित्व को गढ़ते थे। आचार्य का प्रभावकारी पक्ष उसके आचरण का आकर्षण होता है।
आचार्य चरित्र, चिंतन एवं व्यवहाररुपी व्यक्तित्व को तो गढ़ता है, परंतु आंतरिक चेतना के विभिन्न आयामों को अनावृत्त कर पाने में असमर्थ होता है। वह मानवीय चेतना के मर्म को समझ पाने में अक्षम होता है। परंतु यह कार्य गुरु के लिए सहज-सुलभ होता है। गुरु मानवीय चेतना का गहरा मर्मज्ञ होता है। वह चेतना के रहस्य को उजागर उद्घाटित करता है।
चेतना का परिमार्जन, परिष्कार एवं विकास, व्यक्तित्व की ऊंचाई से ऊंचा होता है। मानवीय चेतना की शिखर यात्रा सामान्य घटना नहीं है। यह असामान्य और असाधारण बात है। पिंड में समायी ब्रह्मांडीय चेतना को अनुभव करने एवं कराने की क्षमता शिक्षक एवं आचार्यों के पास नहीं हो सकती। इस महाघटना को केवल गुरु ही संपादित एवं संचालित करता है। वह मानवीय चेतना की समग्रता को जानता एवं बताता है। वह न केवल अद्वितीय बातें बताता है, बल्कि उनका प्रतिपल-प्रतिक्षण अनुभव भी करा देता है। ऐसी बातें जो न भी कहीं गईं और न सुनी गईं, न जानी गईं और न समझी गईं, उनकी वह नए सिरे से व्याख्या-विवेचना करता है।
गुरु देहधारी ईश्वर होता है। गुरुरूप में भगवान मूर्त होते हैं। गुरु के पास बैठने से भगवद्चेतना का दिव्य स्पर्शबोध होता है। इसी कारण रामकृष्ण परमहंस ने गुरु के हृदय को ‘भगवान का डाक-बंगला’ कहकर उसकी गरिमा को महाभिव्यक्ति दी है और कबीरदास ने गुरुपद को भगवान से भी बड़ा एवं श्रेष्ठतम बताया है। गुरुपद स्वयं भगवान देते हैं। गुरुपद की प्राप्ति इस मरणशील संसार के लिए महाक्रांति है, उत्क्रांति है, क्योंकि गुरु शिष्य को मदहोशी से जगा-उठाकर उसे उसके आत्मसाक्षात्कार रुपी महाधिकार से विभूषित करता है। गुरु शिष्य की चेतना को महाशिखर की ओर आरोहित करता है। इच्छाओं, कामनाओं एवं वासनाओं से विदग्ध इस संसार में गुरु का अवतरण सुखद, सजल एवं शीतल छांव के समान होता है, जिस छांव तले न जाने कितनों को बोध प्राप्त होता और इस दिव्य स्पर्श से न जाने कितने बुद्ध पैदा होते है। गुरु केवल और केवल अविराम व नि:स्वार्थ कृपा ही करता है, महाकृपा करता है।
गुरु शिष्य को बोध कराता है, उसे बोधिसत्व बना देता है, परंतु सद्गुरु शिष्य को अपने में समाहित कर लेता है, मिला लेता है। शिष्य की चेतना में वास करने वाला तथा अपनी महाचेतना में शिष्य को डुबो देने वाला सद्गुरु होता है। अत: हर गुरु सद्गुरु नहीं होते। सद्गुरु के लिए बाहर की दौड़ आवश्यक नहीं है, वह तो अंदर में वास करता है। वह बाहर दृश्यमान नहीं, अंदर में झलकता है। सूफियों की नजीर में सद्गुरु की बड़ी ही भावप्रवण अभिव्यंजना मिलती है-‘जब जरा गर्दन झुकाई देख ली तस्वीरें यार।’
सद्गुरु स्वराट नहीं, विराट होते हैं। सद्गुरु ब्राह्मी चेतना से सर्वथा अभिन्न होने के कारण इस जगत के चरम-परम स्त्रोत होते हैं। यह जगत भी उन्हीं का, विस्तार, विराट रूप है। वे एक साथ महाबीज भी है और महावट भी। ऊपरी और बाहरीतौर पर हर कहीं कितना भेद-विभेद और विभाजन क्यों न दिखाई दे, सद्गुरु की परम पावन चेतना सभी कुछ अभिन्न और अभेद है। वह कहीं बाहर नहीं, अंदर में ही विद्यमान है। वह देहातीत है। अत: सद्गुरु को पाने की ढूंढ-खोज अपने अंदर ही करनी चाहिए। सद्गुरु की महाचेतना शिष्यों के अंदर वास करती है। हम अपने अंदर झांंककर ही उसका दिव्य साक्षात्कार कर सकते हैं, अपनी ही चेतना की अंतर्यात्रा में हम सद्गुरु में तदाकार-एकाकार हो सकते हैं। इस प्रकार शिक्षक, आचार्य, गुरु एवं सद्गुरुरुपी कला, ज्ञान, चेतना और महाचेतना के मूर्तरूप का स्पर्श पाकर भौतिक एवं आत्मिक रूप से जीवन समृद्ध होता है। (विनायक फीचर्स)

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