धर्म-कर्म

*तानसेन की लेखनी और वाणी में गणेश वंदना*

देव भूमि जे के न्यूज –

(बद्री नारायण तिवारी – विभूति फीचर्स)

मुगल काल में तानसेन श्रेष्ठ गायक ही नहीं वरन् कालजयी रचनाकार भी थे। उनके पदों का शताब्दियों से मन्दिरों में तन्मयता और भक्तिभाव से विभिन्न रागों में गायन होता है। वस्तुत: पदों की रचना कर, संगीत विद्या में राग-रागनियों की माला में पुरोकर तानसेन ने भारतीय संस्कृति में सगुण भक्त के रूप में विभिन्न देवी-देवताओं की वंदना को लेखनी तथा गायन में प्रस्तुत किया है। सर्वप्रथम उनकी विध्न विनाशक श्री गणेश जी की वंदना की पंक्तियों का अवलोकन करें। तानसेन ने भक्ति भावना की जीवंतता भरकर मन को झंकृत करने वाली पंक्तियों में गणेश जी की स्तुति वंदना प्रस्तुत की है।

गणेश जी विध्न-कारी देवता माने जाते थे। धीरे-धीरे वे विध्न नाशक कल्याणकारी देवता बना दिये गये। गायकों के गणेश सदा आराध्य रहे हैं। उनकी स्तुति में तानसेन ने अनेक पद लिखे हैं।

उठि प्रभात सुमिरियैं, जै श्री गणेश देवा। माता जाकी पारवती,पिता महादेवा।। एकदंत दयांवत, चार भुजाधारी। मस्तक सिंदूर सौहै मूसक असवारी॥ फूल चढ़े पान चढ़ै और चढ़ै मेवा। मोदक कौ भोग लगै, सुफल तेरी सेवा॥ रिद्घि देत, सिद्घि देत, बुद्घि देत भारी,। ”तानसेन गजानंद सुमिरौ नर-नारी’ (राग भैरव, ध्रुपद चौताला)

पचास-साठ वर्ष पहले से इस पद को लोग बड़े भक्ति-भाव से गाते थे। तथापि अंतिम चरण नहीं गाया जाता। इस कारण यह ज्ञात नहीं हो पाया कि यह पद तानसेन का है। लगभग इसी भाव की एक गणेश-वंदना और है-

जै गनेस जै गनेस जै गनेस देवा। मन बुधि हित चित लगाइ करौ नित्त सेवा॥ एकदंत दयावंत चारि भुजाधारी। मस्तक सिंदूर सोहै मूसे असवारी॥ माता वाकी गवरि कहीजै पिता महादेवा। तीनि लोक ध्यान धरत नित्त करत सेवा॥ अंधनि कौ नैन देत कुस्टनि कौ काया। बाँझनि कौ पुत्र देत निर्धन कौ माया॥ भालचंद्र सिव विलोकि देव सकल बारी। ”तानसेन’गजानंद गावै सुभकारी॥ ( ”पं. हरिहरनिवास द्विवेदी कृत तानसेन से’’) (राग भैरव, इकताला)

गणेश के अनेक नामों की माला गूंथ कर तानसेन ने उनके गले में पहना दी है- (राग भैरव, इकताला)

लंबोदर, गज-आनन, गिरिजा-सुत गनेस, एकरदन प्रसन्नवदन अरून-भेस। नर-नारी,गुनी-गंधर्व, किन्नर-यक्ष-तुंबरू मिलि ब्रह्म विष्णु आरति पुजावत महेस॥ अष्ट-सिद्घि, नव-निधि, मूषक-वाहन विद्यापति, तोहि सुमिरत जिनको सेस। ”तानसेन’’ के प्रभु तुम ही कूँ ध्यावै अविर्धन रूप, विनायक रूप स्वरूप आदेस॥ गणेश के कुछ नाम शेष रह गय थे, वे इस पद में पूरे किए गए- (रागिनी टोड़ी, चौताला)

एकदंत, गजबदन, विनायक, विधन-बिनासन हैं सुखदाई। लंबोदर, गजानन, जगवंदन, शिवसुत, ढुंढीराज सब बरदाई॥ गौरी-सुत, गणेश, मूसक-वाहन, फरसाधर, शंकर-सुवन, रिद्घि-सिद्घि नव निधि दाई।

अंतत: महागणेश के रूप में तानसेन ने इस सेवा भावना से याचना करते हुए प्रार्थना की है- महागनेस कहत सुख-चैन। भेंटत हू न छाँडे अभावै, साह किरपा मागै, भागै बिचकै न॥ नाम लेत कटत पाप, अन-धन लच्छिमी देन। ”तानसेन’’ सेवक पै कृपा करौ ज्यौ कल्पवृक्ष कामधेन॥

लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने ”गणेश उत्सव महोत्सव’’ का शुभारम्भ कर के इसे राष्ट्रीय आंदोलन से सम्बद्घ कर दिया था। उसमें भी तानसेन के पदों का सुमधुर गायन होता है। (विभूति फीचर्स)

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