*उज्जैन का हरसिद्धि माता मंदिर- जहां माता सती की कोहनी गिरी थी*
देव भूमि जे के न्यूज –
(संदीप सृजन-विनायक फीचर्स)
वैसे तो भारत में हरसिद्धि माता के कई प्रसिद्ध मंदिर है लेकिन उज्जैन में महाकाल मंदिर से कुछ दूरी पर स्थित हरसिद्धि मंदिर सबसे प्राचीन है। कहा जाता है कि उज्जैन की रक्षा के लिए आस-पास देवियों का पहरा है, उनमें से एक हरसिद्धि देवी भी हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार यह मंदिर वहां स्थित है जहां सती के शरीर का अंश अर्थात हाथ की कोहनी आकर गिर गई थी। अत: इस स्थल को भी शक्तिपीठ के अंतर्गत माना जाता है। इस देवी मंदिर का पुराणों में भी वर्णन मिलता है।
कहा जाता है कि यह स्थान सम्राट विक्रमादित्य की तपोभूमि है। मंदिर के पीछे एक कोने में कुछ ‘सिर’ सिन्दूर चढ़े हुए रखे हैं। ये ‘विक्रमादित्य के सिर’ बतलाए जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि महान सम्राट विक्रम ने देवी को प्रसन्न करने के लिए प्रत्येक 12वें वर्ष में अपने हाथों से अपने मस्तक की बलि दे दी थी। उन्होंने ऐसा 11 बार किया लेकिन हर बार सिर वापस आ जाता था। 12वीं बार सिर नहीं आया तो समझा गया कि उनका शासन संपूर्ण हो गया। हालांकि उन्होंने 135 वर्ष शासन किया था। वैसे यह देवी वैष्णवी हैं तथा यहां पूजा में बलि नहीं चढ़ाई जाती है।
हरसिद्धि मंदिर की चारदीवारी के अंदर चार प्रवेश द्वार हैं। मंदिर का मुख्य द्वार पूर्व दिशा की ओर है। द्वार पर सुंदर बंगले बने हुए हैं। बंगले के निकट दक्षिण-पूर्व के कोण में एक बावड़ी बनी हुई है जिसके अंदर एक स्तंभ है। यहां श्रीयंत्र बना हुआ स्थान है। इसी स्थान के पीछे भगवती अन्नपूर्णा की सुंदर प्रतिमा है।
मंदिर के पूर्व द्वार से लगा हुआ सप्तसागर (रुद्रसागर) तालाब है जिसे रुद्रासागर भी कहते हैं। रुद्रसागर तालाब के सुरम्य तट पर चारों ओर मजबूत प्रस्तर दीवारों के बीच यह सुंदर मंदिर बना हुआ है। मंदिर के ठीक सामने दो बड़े दीप-स्तंभ खड़े हुए हैं। प्रतिवर्ष नवरात्र के दिनों में प्रतिदिन इन पर दीप मालाएं लगाई जाती थी लेकिन मान्यताओं के चलते अब लगभग रोजाना दीप मालाएं लगाई जाती है।मंदिर के पीछे अगस्तेश्वर का प्राचीन सिद्ध स्थान है जो महाकालेश्वर के भक्त हैं। मंदिर का सिंहस्थ 2004 के समय पुन: जीर्णोद्धार किया गया है।
*मंदिर की पौराणिक कथा*
कहते हैं कि चण्ड और मुण्ड नामक दो दैत्यों ने अपना आतंक मचा रखा था। एक बार दोनों ने कैलाश पर कब्जा करने की योजना बनाई और वे दोनों वहां पहुंच गए। उस दौरान माता पार्वती और भगवान शंकर द्यूत-क्रीड़ा में निरत थे। दोनों जबरन अंदर प्रवेश करने लगे, तो द्वार पर ही शिव के नंदीगण ने उन्हें रोक दिया। दोनों दैत्यों ने नंदीगण को शस्त्र से घायल कर दिया। जब शिवजी को यह पता चला तो उन्होंने तुरंत चंडीदेवी का स्मरण किया।
देवी ने आज्ञा पाकर तत्क्षण दोनों दैत्यों का वध कर दिया। फिर उन्होंने शंकरजी के निकट आकर विनम्रता से वध का वृतांत सुनाया। शंकरजी ने प्रसन्नता से कहा- हे चण्डी, आपने दुष्टों का वध किया है अत: लोक ख्याति में आपका नाम हरसिद्धि नाम से प्रसिद्ध होगा। तभी से इस महाकाल वन में हरसिद्धि विराजित हैं।(विनायक फीचर्स)
*बंगाल का सिद्ध शक्तिस्थल तारापीठ*
(शिव शंकर सिंह पारिजात-विनायक फीचर्स)
तारापीठ बंगाल का एक प्रमुख शक्तिस्थल है जो पटना-हावड़ा लूप रेल लाईन पर झारखंड-बंगाल की सीमा पर रामपुर हाट स्टेशन (बीरभूम जिला) से करीब 8 किमी दूर द्वारिका नदी के तट पर स्थित है। कोलकाता से यह 213 कि.मी. और पटना से (वाया जमालपुर-भागलपुर) 389 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। रेल के अलावा यहां सड़क मार्ग से भी देश के किसी भी कोने से पहुंचा जा सकता है।
बंगाल में शक्ति-पूजा की प्राचीन परम्परा है। यहां के घर-घर में देवी काली की पूजा होती है जिनके मंदिर यहां के हर गली-मुहल्लों में देखने को मिल जायेंगे। तारापीठ में आद्या देवी शक्ति की अवतार मां तारा विराजती हैं। इस स्थल की मान्यता एक जाग्रत शक्ति पीठ एवं तंत्रपीठ के रूप में है जहां आराधकों और साधकों की विनती शीघ्र सुनी जाती है। मां तारा सुख, समृद्धि, स्वास्थ्य-आरोग्य व ज्ञान-साधना की देवी मानी जाती हैं। यही कारण है कि बिहार, बंगाल और झारखंड सहित देश के कोने-कोने से प्रतिदिन हजारों श्रद्धालु यहां तारा माँ के दर्शन हेतु यहां आते हैं एवं भक्ति पूर्वक पूजन-अर्चन कर मनोवांछित फल पाते हैं।
शक्ति-पीठ तारापीठ के बारे में ऐसी मान्यता है कि यहां देवी की आंख का तारा गिरा था जिसकी कथा दक्ष प्रजापति के यज्ञ और माता पार्वती के हवन-कुंड में दाह से जुड़ी है। जब पिता द्वारा अपने पति की अवहेलना से व्यथित पार्वती ने हवन-कुंड में कूदकर आत्मदाह कर लिया और इससे उन्मत्त होकर शिव उनके शव को लेकर तीनों लोक में फिरने लगे तो भगवान विष्णु ने देवी के शव को सुदर्शन चक्र से काट डाला जिसके 51 टुकड़े विभिन्न स्थानों में गिरे जिनकी मान्यता 51 शक्तिपीठों में हुई। तारापीठ में देवी की आंखों के तारे गिरे थे, इस कारण इसकी प्रसिद्धि तारापीठ के नाम से हुई। एक मान्यता यह भी है कि यह स्थल बिहार के महेशी में है।
देवी तारा की गणना दश महाविद्याओं में होती है जो शक्ति के रूप में देवी का तांत्रिक अवतार मानी जाती हैं । जिनका निवास-स्थान श्मशान होता है। अपने भक्तों की आराधना एवं तंत्र साधकों की साधना से देवी शीघ्र प्रसन्न हो जाती हैं।
देवी तारा के आविर्भाव के संबंध में ‘कालिका पुराण’ में वर्णित है कि शुंभ व निशुंभ दानवों से पराजय के बाद जब देवतागण हिमालय में जाकर देवी मातंगी का आह्वान करने लगे तो उनके शरीर से महासरस्वती स्वरूप श्वेत वरणवाली कौशिकी के साथ काले वरणवाली काली अथवा उग्रतारा प्रकट हुई थीं। देवी तारा नील वरण की चार भुजाओं वाली होती हैं जिसमें वे तलवार, खप्पर, कटार और नील कमल धारण करती हैं।
धार्मिक ग्रंथों में करूणामयी तथा कल्याणमयी तारा माँ के आठ रूपों की चर्चा है जो उग्र तारा, नील सरस्वती, एकजटा भवानी, महोग्रा, कामेश्वरी, चामुण्डा, वज्र और भद्रकाली आदि नामों से भी जानी जाती हैं। वशिष्ठ मुनि द्वारा पूजित होने के कारण माँ का एक नाम वशिष्ठ आराधित तारा भी है।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार वशिष्ठ मुनि ने तारा मंदिर के निकट द्वारिका नदी के तट पर स्थित श्मशान में तारा माँ की आराधना की थी जिसके कारण ये वशिष्ट आराधित तारा के नाम से भी जानी जाती हैं। स्थानीय परम्परा के अनुसार मुनि वशिष्ठ ने इस स्थान को इस कारण अपनी साधना के लिये चुना क्योंकि इसकी प्रसिद्धि सिद्ध पीठ के रूप में थी।
बताते हैं कि वशिष्ट मुनि ने यहां कठोर तपस्या करते हुए 3 लाख तारा मंत्रों के जाप किये थे जिससे प्रसन्न होकर देवी उनके समक्ष प्रकट हुई। वशिष्ठ के अनुरोध पर देवी ने उन्हें भगवान शिव को दुग्ध-पान कराते हुए मातृ स्वरुप में दर्शन दिये जिसके उपरांत वे शिलामूर्ति में परिवर्तित हो गईं। बाद में द्वारिका नदी के तट पर स्थित श्मशान, जहां वशिष्ट मुनि ने तपस्या की थी, से प्राप्त तारा माँ की शिलामयी प्रस्तर मूर्ति को मुख्य तारा मंदिर में लाकर प्रतिष्ठित किया गया है जिसके ऊपर देवी की चांदी की मुखाकृति आवेष्ठित कर दी गई है जिसका दर्शन-पूजन श्रद्धालुगण करते हैं। प्रतिदिन देर रात्रि में भक्तों को देवी तारा के शिलारुप का दर्शन कराया जाता है।
देवी के द्वारा मातृरूप में भगवान शिव के दुग्धपान कराने का प्रसंग पौराणिक समुद्र मंथन की घटना से जुड़ा हुआ है। कहते हैं कि समुद्र मंथन से निकले विष का पान करने से जब उसकी ज्वाला से वे विह्वल हो उठे, तो देवी पार्वती ने उनको मातृस्वरूप धारण कर दुग्धपान कराया था जिसके पश्चात उनके कंठ की ज्वाला शांत हुई थी। जिस मंदार पर्वत से समुद्र मंथन किया गया था, वो तारापीठ से करीब 137 कि.मी. (वाया दुमका-हंसडीहा) पर बौंसी ( बांका जिला, बिहार) में अवस्थित है। मुख्य तारा मंदिर के निकट स्थित श्मशान में वशिष्ठ मंदिर तथा पंचमुंडी मंदिर निर्मित है जहां साधना करते साधकों को देखा जा सकता है। जाने-माने इतिहासकार विलियम डेलरिंपल ने भी अपनी पुस्तक ‘नाईन लाइव्स: द लेडी ट्वीलाईट’ में तारापीठ की अलौकिक कहानियों के उल्लेख किये हैं।
हिंदू धर्मावलंबियों की तरह बौद्ध धर्म में भी देवी तारा का महात्यम है। बौद्ध धर्म में भी ये शाक्त देवी के रूप में पूजी जाती हैं। बौद्ध धर्म में शाक्त धर्म से ही देवी तारा का प्रवेश हुआ है। ‘डेवलपमेंट ऑफ बुद्धिस्ट आईकोनोग्राफी इन इस्टर्न इंडिया’ में मल्लार घोष कहते हैं कि तारा का आविर्भाव पुराणों में वर्णित देवी दुर्गा से हुआ है। वे शाक्त धर्म के साथ बौद्ध धर्म में भी दश महाविद्याओं में एक मानी जाती हैं।
बौद्ध धर्म की तिब्बती मान्यताओं में आर्यतारा महायान में नारी बोधिसत्व और वज्रयान में नारी बुद्ध के रूप में पूजित हैं जो मुक्ति व सफलता प्रदान करती हैं। कतिपय मूल बौद्ध ग्रंथों में तारा को सभी तथागतों की माता बताया गया है। तिब्बती बौद्ध धर्म में श्वेत तारा और हरित तारा की विशिष्ट मान्यता है। वज्रयान और तंत्रयान के विशिष्ट केंद्र के रूप में प्रसिद्ध विक्रमशिला बौद्ध महाविहार के आचार्य दीपंकर श्रीज्ञान अतिश की आराध्य देवी तारा ही थीं।
मां तारा के अनन्य भक्त बामाखेपा अर्थात बामदेव का उल्लेख किये बिना तारापीठ की चर्चा अधूरी है। कहते हैं उन्हें माँ का दर्शन प्राप्त हुआ था। तारापीठ में माँ के मंदिर परिसर में ही बामदेव का भी मंदिर है। ऐसा विरले होता है कि एक ही स्थान पर भक्त के साथ उनके भगवान की भी पूजा होती हो।
तारापीठ का मुख्य मंदिर अत्यंत भव्य और आकर्षक है तथा बंगाल की पारम्परिक चाला रीति में निर्मित है। लाल सुर्ख ईंटों से बने इस मंदिर की दीवारों पर विभिन्न देवी-देवताओं की मूर्तियों के अलावा रामायण के प्रसंग भी अंकित हैं।
यह उन दिनों की बात है जब तारापीठ नाटोर स्टेट के अन्तर्गत आता था जो तत्कालीन पूर्व बंगाल (वर्तमान बांग्लादेश) में पड़ता था। 34 हजार वर्ग किलोमीटर में फैले डेढ़ करोड़ के राजस्व वाले नाटोर स्टेट की रानी भवानी कुशल शासक के साथ बहुत ही धार्मिक स्वभाव की थी और मां तारा के मंदिर के निर्माण, जीर्णोद्धार तथा प्रबंधन-व्यवस्था में उनका विशेष योगदान था। वाराणसी के प्रसिद्ध दुर्गा कुंड मंदिर के अलावा जैसोर जिला गजेटियर में ओ’ मोली बताते हैं कि रानी भवानी ने 380 मंदिरों तथा धर्मशालाओं के निर्माण करवाये थे।
बामाखेपा एक सिद्ध तांत्रिक थे तथा मंदिर के बगल में स्थित श्मशान रहते थे। बामा मां के रूप में देवी तारा की आराधना करते थे तथा उनके साथ पुत्रवत उन्मुक्त व्यवहार करते थे जिसके कारण मंदिर के पुजारी उन्हें बीच-बीच में प्रताड़ित करते रहते थे।
इस संबंध में अपनी पुस्तक में डेविड आर.किंसले एक घटना का जिक्र करते हुए कहते हैं कि एक बार बामा ने तारा मां को भोग लगाने के पहले ही प्रसाद उठाकर खा लिया जिससे क्रोधित होकर पुजारियों ने उन्हें मंदिर से निकाल बाहर कर दिया। मां के वियोग में बामा बगल के श्मशान में एक पेड़ के नीचे मां की रट लगाते हुए विलाप करने लगे।
कहते हैं अपने पुत्र की इस दशा से मां तारा ने विह्वल होकर नाटोर स्टेट की रानी को स्वप्न दिया है कि मेरा पुत्र श्मशान में भूखा पड़ा है, तो मैं तुम्हारा भोग कैसे स्वीकार कर सकती हूं, पहले उसको भोजन दो। देवी के आदेश का रानी ने तत्काल पालन किया और तब से देवी को भोग लगाने के पूर्व बामा को भोजन देने की परिपाटी चल पड़ी। ऐसी मान्यता है कि मां तारा ने बामा खेपा को दर्शन दिये थे।
तारापीठ में मुख्य मंदिर के सामने एक पोखर है जो जीवंतो पोखर कहलाता है। कहते हैं एक व्यापारी का मृत पुत्र इस पोखर में स्नान कराने से जी उठा था। तारा पीठ में पूजा करने के पूर्व भक्तगण इस सरोवर में स्नान करते हैं। हाल ही में सरकार ने पूरे तारापीठ के साथ इस पोखर का सौन्दर्यीकरण कराया है जिससे यहां की खूबसूरती काफी बढ़ गयी है।
माँ तारा को जवा, कमल और नीले फूल अत्यंत प्रिय हैं, इस कारण श्रद्धालुगण इन्हें आवश्यक रूप से माँ को अर्पित करते हैं। ऐसे तो यहां साल भर भक्तों का तांता लगा रहता है, किंतु शनिवार और रविवार-सोमवार को माँ तारा का दर्शन-पूजन परम आनन्ददायक तथा फलदायी माना जाता है।(विनायक फीचर्स)