उत्तराखंड

*”करें योग रहें निरोग”-जानिए योग के विषय में विस्तार से*

देवभूमि जे के न्यूज 21/06/2024–

।।अन्तर्राष्ट्रीय योगदिवसस्य सर्वेभ्यो हार्दा: शुभाशया: ।।
||करें योग रहें निरोग||
1. *महर्षि पतंजलि के अनुसार* –
*‘‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः’’* (पतंजलि.यो.सू. 1/2)
अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है।

2. *गीता के अनुसार*
*‘‘योगः कर्मसु कौशलम्’’* (गीता 2/50)
अर्थात् कर्म करने की कुशलता ही योग है।

*‘‘समत्वं योग उच्यते’’* (गीता 2/48)
अर्थात् सुख- दुःख, हानि- लाभ, सफलता- असफलता आदि द्वन्द्वों में सम रहते हुए निष्काम भाव से कर्म करना ही योग है।

*‘‘दुःख संयोगवियोगं योग संज्ञितम्’’* (गीता 6/23)
अर्थात् जो दुःख रूप संसार के संयोग से रहित है उसका नाम योग है।

3. *महोपनिषद् के अनुसार* –
*‘‘मनः प्रशमनोपायो योग इत्यभिधीयते’’* (महो0 5/42)
अर्थात् मन के प्रशमन के उपाय को योग कहते हैं।

4. *महर्षि याज्ञवल्क्य के अनुसार-*
*‘‘संयोग योगयुक्तो इति युक्तो जीवात्मा परमात्मनो।’’*
अर्थात् जीवात्मा और परमात्मा के मिलन को ही योग कहते हैं।

5. *कैवल्योपनिषद् के अनुसार-*
*‘‘श्रद्धा भक्ति ध्यान योगादवेहि’’*
अर्थात् श्रद्धा, भक्ति, ध्यान के द्वारा आत्मा का ज्ञान ही योग है।

6. *विष्णुपुराण के अनुसार*
*‘‘योगः संयोग इत्यक्तः जीवात्मा परमात्मनो।’’*
अर्थात् जीवात्मा तथा परमात्मा का पूर्णतः मिलन ही योग कहलाता है।

योग क्या है

महर्षि पतञ्जलि के अनुसार –योगश्चित्तवृत्ति निरोधः (योग सूत्र; समाधि पाद-२) । चित्त की वृत्तियों का निरोध योग है । गीता के अनुसार – समत्वं योग उच्यते (गीता; २-४८) या योगः कर्मसु कौशलम् (गीता; २-५०) । यानी (बुद्धि का) समत्व योग कहलाता है या कर्म करने की कुशलता योग है । सुनने और देखने में ये अलग-अलग बातें लगतीं हैं । मगर इनमें कोई विरोध या भिन्नता नहीं है । ध्यान रहे जब और जितना चित्त वृत्तियों का निरोध होगा तब उतनी ही समत्व बुद्धि आयेगी और जितनी समत्व बुद्धि आयेगी उतनी की कर्म की कुशलता होगी । कर्म की कुशलता से तात्पर्य है- आसक्ति रहित कर्म । यहाँ कर्म को समझ लें । हाथ-पैरों से जो किया जाता है वह कर्म नहीं है । हाथ पैरों से तो क्रिया होतीं हैं किन्तु कर्म चेतना करती है । जैसे चेतना की अभिव्यक्ति शरीर के द्वारा होती है, उसी प्रकार कर्मों की अभिव्यक्ति क्रियाओं में होती है । कर्म दिखाई नहीं देते क्रियाएं दिखाई देती हैं । जब क्रियाओं की नकल लोग करने लगते हैं उसके पीछे के कर्मों को नहीं समझते तो यही क्रियायें परम्पराएं बन जाती हैं । अतः चित्त वृत्तियों का निरोध हो या समत्व बुद्धि या कर्म की कुशलता सभी चेतना के स्तर पर होते हैं । इस योग में शरीर की कुछ क्रियाएं भी आवश्यक होतीं हैं क्यों कि चेतना शरीर से आबद्ध है । शरीर के द्वारा चेतना पकड़ में आती है और चेतना के द्वारा शरीर नियन्त्रित होता है ।

महर्षि पतञ्जलि ने अपने योग सूत्र में योग के आठ अंग बताये हैं । योग किसी भी प्रकार का हो उसके आठ ही अंग होते हैं । यहाँ ध्यान रहे ध्यान योग, योग का एक अंग है, योग नहीं है । यहाँ तक तो सभी को पहुँचना चाहिये । इसलिये इसकी महत्ता प्रदर्शित करने के लिये इसे योग का दर्जा दे दिया गया । योग के आठ अंगों से तात्पर्य है, योग की क्रिया में चलने वाली आठ प्रक्रियाएँ । आप जानते हैं योग एक क्रिया है जो सम्पूर्ण विश्व में निरन्तर चल रही है ।

योग के ये आठ अंग हैं – यमनियमआसनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टाव अङ्गानि (योग सूत्र; साधनापाद २९वाँ सूत्र) यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार ध्यान, धारणा और समाधि। इनमें से पहले दो चेतना के कर्म हैं जो शारीरिक क्रियाओं में अभिव्यक्त होते हैं । बाद के दो शुद्ध शारीरिक क्रियाएं हैं । बाद के चारों चेतना के स्तर पर होने वाले कर्म हैं, अब यहाँ सभी की थोड़ी-थोड़ी चर्चा करेगें ।

1. यम – योग को समझने के बाद इसे नियन्त्रण में करने के लिये कुछ वृतों (Ethics) का पालन करना आवश्यक है । ये पाँच हैं – अहिंसा, सत्य आस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य ।
अहिंसा – किसी को मन, वाणी या कर्म से भी दुःख न देना यानी जैसा दूसरों से व्यवहार चाहें वैसा उनके साथ करें । महाभारत में भीष्म पितामह ने तथा जैन सम्प्रदाय में भी इसी को परम धर्म कहा गया है ।
सत्य – भ्रम से मुक्ति, बातों और वस्तुओं को उनके सही परिप्रेक्ष्य में समझना और समझाना, न स्वयं धोखे में रहें, न दूसरों को रखें ।
आस्तेय – कुछ भी न छिपाना, बाहर-भीतर से एक जैसे रहना । Double life और Double standards न रखना ।
अपरिग्रह – संचय वृत्ति का त्याग । आवश्यकता से अधिक संचय न करना ।
ब्रह्मचर्य – ब्रह्मचारियों जैसी वृत्ति रखें । इसमें आहार-विहार पर नियन्त्रण आता है ।

2. नियम – Code of conduct । इनका पालन करना आवश्यक है । ये भी पाँच हैं – स्वाध्याय, संतोष, तप, शौच और ईश्वर प्रणिधान ।
स्वाध्याय– अपने को समझना, ख़ुद को पढ़ना, अपनी प्रत्येक क्रिया और कर्म का विश्लेषण करना । उसके लिये पुस्तकों, विद्वानों की सहायता लेना ।
संतोष– जिस स्थिति में हों उसमें प्रसन्न रहना, जितना है उसी में रहना- तेते पाँव पसारिये जेती लाँबी सौर, हीन भावना से बचना । इसके लिये अपने से नीचे(व्यक्तियों, परिस्थियों को)को देखना ।
तप– अपने को तपाना, यानि विरुद्ध परिस्थितियों में रहने का अभ्यास ।
शौच– पवित्रता, शरीर की ही नहीं, मन की भी शुद्धि, ग्रन्थियों(कॉम्प्लैक्सैज़) से मुक्ति ।
ईश्वर प्रणिधान– ईश्वर पर विश्वास और आस्था ।

इनमें से तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान, इन तीन को क्रिया योग कहा गया है । तपस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रिया योगः । (योग सूत्र) वस्तुतः ये यम और नियम मनुष्य में धर्म के लक्षणों को स्थिर करने के लिये हैं । इन के अभ्यास से धर्म पुष्ट होता है । जिसमें धर्म स्थिर है वही योग की क्रिया को नियन्त्रित करके उसका लाभ उठा सकता है । ग्रन्थान्तरों में इनकी संख्या १०-१० बताई गयी है ।

3. आसन – स्थिर सुःखमासनम् । (योग सूत्र; २-४६) । जिस प्रकार भी सुख पूर्वक स्थिर रह सकें वही आसन है । विद्वानों ने अनेक आसन विकसित किये हैं । जिनका उद्देश्य शरीर को स्वस्थ्य रखना और तप कराना है ।

4. प्राणायाम – तस्मिन् सति श्वास प्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायाम । (योग सूत्र; २-४९)। इससे वायु के विकार दूर होकर शरीर और मन दोनों में स्वच्छता उत्पन्न होती है ।

5. प्रत्याहार – अपने-अपने विषयों से इन्द्रियों का उपरत होना , उन पर विजय प्राप्त करना । वस्तुतः मन और इन्द्रियों के बीच सम्बन्धों को समाप्त करना, ताकि बाह्य जगत से मन पृथक् हो सके । क्योंकि इन्द्रियों के द्वारा ही मन बाह्य जगत से जुड़ता है ।

6. धारणा – धारणासु च योग्यता मनसः । (योग सूत्र; २-५३) । किसी कौंसैप्ट का बनना । मन का किसी बिम्ब, भाव या विचार को धारण करने योग्य हो जाना एक प्रकार की understanding बन जाने की स्थिति । और यह तभी सम्भव है जब मन बाह्य जगत् से मुक्त हो जायगा यानी प्रत्याहार से ।

7. ध्यान – तत्र प्रत्यैकतानता ध्यानम् । (योग सूत्र; ३-२) । धारणा के प्रति एकतानता, निरन्तरता, धारणा का दृढ़ी करण । Concept का पक्का होना और काव्य शास्त्र की भाषा में साधारणीकरण ।

8. समाधि – चित्त और धारणा का सारूप्य, तादात्म्य, एकरूपता, अद्वैत, डूब जाना, लीन हो जाना । इसमें अहंकार suspend हो जाता है । हम, हम नहीं रहते धारणा बन जाते हैं । काव्य शास्त्र की भाषा में यह रस दशा है। यह दो प्रकार की होती है – सविकल्प और निर्विकल्प । सविकल्प पुनः छः प्रकार की होती है – सविचार, निर्विचार, सवितर्क, निर्वितर्क, सस्मित और सानन्द । सविकल्प में ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान बने रहते हैं जबकि निर्विकल्प में नहीं रहते ये भी नहीं रहते। इस निर्विकल्प समाधि को कैवल्य या निरुपाधि या निर्वीज समाधि भी कहते हैं । इसमें संस्कार निर्वीज हो जाते हैं ।

ऊपर कही गई ये सभी क्रियाएं निरन्तर प्रत्येक मनुष्य के भीतर चलती रहतीं हैं, किन्तु व्यवस्थित नहीं होतीं । इन्हें समझ कर व्यवस्थित करना ही योगाभ्यास है । इस अभ्यास से जब ये व्यवस्थित होकर नियन्त्रण में आजाती हैं और साधक कैवल्य अवस्था तक पहुँच जाता है तब वही सर्व शक्तिमान ब्रह्म हो जाता है । यहाँ ये नहीं समझना चाहिये कि कैवल्य अवस्था तक पहुँचने से पहले योगाभ्यास की कोई उपियोगिता नहीं है । साधक जैसे-जैसे अपनी इन्द्रियों, मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार की शक्तियों पर विजय प्राप्त करता जाता है; वैसे ही वैसे उसे सिद्धियाँ प्राप्त होती जातीं है । जो लोग सिद्धियों या किसी एक सिद्धि पर जाकर रुक जाते हैं वे योगभ्रष्ट साधक अगले जन्म में किसी योगी के यहाँ अथवा साधन सम्पन्न व्यक्ति के यहाँ जन्म लेते हैं और अपनी पूर्व संचित शक्तियों का लाभ उठाते हैं। गीता; (६-४१,४२,४३) । इसी को प्रारब्ध कहा जाता है ।

प्रारब्ध या कर्म फल के सिद्धान्त को समझने के लिये हमें अपनी चेतना तथा उसके अंगों और उनकी शक्तियों को भी समझना होगा । कर्म कैसे बनता है और कैसे फलता है, कैसे संस्कार बनते जाते हैं ? यह समझना भी आवश्यक है ।

योग शब्द का अर्थ है जोड़ना (union) । ये पूरा संसार यज्ञ (दान, उपासना और समीकरण) से चल रहा है । दान = अलग-अलग करना या घटाना, उपासना= पास-पास रखना औरसमीकरण= जोड़ना या योग । जैसे ३-३=० यह दान है, ३३ यह उपासना है और ३+३=६ यह जोड़ या योग है । यह पूरा विश्व इन्ही तीन क्रियाओं से बना है, इन्ही तीन क्रियाओं से चल रहा है और इन्ही तीन क्रियाओं के परिणाम स्वरूप नष्ट हो जायगा । आज हम इन तीन क्रियाओं में से एक योग पर चर्चा करेगें ।

योग से ये सृष्टि आगे बढ़ती है । योग से नव निर्माण होता है, योग से ऊर्जा प्राप्त होती है । स्त्री-पुरुष के योग से सृष्टि आगे बढ़ती है । रात-दिन के योग से समय का चक्र चलता है । योग से गणित चलता है । हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के योग से पानी बनता है । योग के द्वारा दो विपरीत धारा वाले पदार्थों में फ़्यूज़न हो कर ऊर्जा प्राप्त होती है । यह योग की क्रिया इस प्रकृति में निरन्तर चल रही है । बाह्य प्रकृति में भी, अन्तः प्रकृति में भी ।

मनुष्य भी जड़ और चेतन का योग ही है । उसके भीतर भी यह योग की क्रिया जड़ (शरीर) और चेतन (चेतना) – दोनों स्तरों पर निरन्तर चल रही है । इस प्रक्रिया को समझ कर, इस को अपने नियन्त्रण में ले कर इसे अपने लिये उपयोगी बनाना – यही योगाभ्यास है । इसके द्वारा मनुष्य कुछ भी कर सकता है, इसी से माया के बन्धन टूट कर ब्रह्मत्व प्राप्त होता है । उपनिषदों में इस योग के सम्बन्ध में बहुत कुछ मिलता है । सांख्य योग भारत का सबसे प्राचीन योग है और इसके प्रणेता भगवान कपिल कहे जाते हैं । ईसा पूर्व १५० के लगभग महर्षि पतञ्जलि द्वारा लिखा योग सूत्र ग्रन्थ इस दिशा में बहुत महत्वपूर्ण है और प्राचीन भी है । यह चार पादों में विभक्त है – समाधि पाद, साधना पाद, विभूति पाद और कैवल्य पाद । समाधि पाद में योग क्या है तथा उससे सम्बन्धित शब्दावलि को स्पष्ट किया गया है । साधना पाद में योग के आठ अंगों का वर्णन है । विभूति पाद में योग के लाभ और विशेषताएं बताई गईं हैं और कैवल्य पाद योग के अन्तिम लक्ष्य निर्विकल्प समाधि के संबन्ध में है । इसका आधार भी सांख्य योग ही है । इससे पहले इस विषय पर इतना स्पष्ट लिखा गया और कोई ग्रंथ उपलब्ध नहीं है ।

ग्रन्थान्तरों को देखें तो पता चलता है कि योग दो प्रकार का होता था – हठ योग और सहज योग । हठ योग जैसा कि नाम से स्पष्ट है- हठ पूर्वक (Forcefully), अतिप्राकृत तरीके से किया जाने वाला योग है । जबकि सहज योग एक सहज तरीके से, प्राकृत ढंग से किया जाने वाला योग है । इसमें साधक की प्रकृति के अनुसार योग की विधि निश्चित की जाती है । इसे कोई भी कर सकता है ।

योग क्या है 2
शैवागमों में हठ योग का उल्लेख मिलता है । कदाचित् शैव सम्प्रदाय भारत का सर्वाधिक प्राचीन सम्प्रदाय है । यहीं से यह योग शाक्तों में और फिर बौद्धों में गया । शैवों में इससे अघोर पंथ, और शाक्तों में कौलाचार प्रारम्भ हुआ । वर्तमान के तन्त्र-मन्त्र और झाड़-फूँक इसी की शाखाएँ हैं । यही बौद्धों में उनकी बज्रयान शाखा में पहुँच कर उनके पतन का कारण बन गया । १०वीं शताब्दी से १२वीं शताब्दी तक शैवों के नाथ सम्प्रदाय में इसका बहुत प्रचार रहा । इस बीच में योग दर्शन, गोरख संहिता, हठ योग सार, कुण्डक योग आदि अनेक ग्रन्थ लिखे गये । जैन सम्प्रदाय में ११वीं शताब्दी के प्रसिद्ध कवि एवं व्याकरणकार सिद्ध हेमचन्द्र का लिखा योगशास्त्र नामक ग्रन्थ मिलता है । इसमें मनुष्य के आहार-विहार की शुद्धता और दृष्टिराग को दूर करने पर बल दिया गया है । यह ग्रन्थ योग सूत्र से ही प्रभावित है और काव्यात्मक ग्रन्थ है । हठ योग पर १५वीं शताब्दी में योगी स्वात्माराम द्वारा लिखित हठ योग प्रदीपिका नामक ग्रन्थ उपलब्ध है । इसमें शरीर शुद्धि के लिये न्यौली, नेती, धौती आदि कठिन क्रियाओं का उल्लेख है, साथ ही आसन और प्राणायाम के अतिरिक्त विभिन्न मुद्राओं का भी विस्तार से उल्लेख है । अनेक बातें आयुर्वेद शास्त्र से ली गई हैं । योगी के आहार-विहार पर बल दिया गया है । शेष बातें पतञ्जलि के योग सूत्र से ली गई हैं । हठ योग का यह श्रेष्ठतम ग्रन्थ है । धीरे-धीरे योग की इस शाखा में केवल बाह्याचार रह गया । फलतः सभी मध्यकालीन सन्तों और बाद के पण्डितों ने इसका विरोध प्रारम्भ कर दिया । हिन्दी साहित्य के मध्यकाल की निर्गुण सम्प्रदाय की ज्ञानमार्गी शाखा के कवियों ने भी योग पर बहुत कुछ लिखा है ।

इनके अतिरिक्त सहज योग नाम से तो नहीं पर अन्य नामों के साथ योग के सम्बन्ध में महाभारत, श्रीमद् भागवत आदि ग्रन्थों में उल्लेख मिलता है । गीता को जो महाभारत का एक छोटा सा भाग है, योग का अप्रतिम ग्रन्थ माना जाता है । इसमें ज्ञान योग और कर्म योग पर विस्तृत चर्चा के अतिरिक्त भाव योग (भक्ति योग) का भी संकेत मिलता है । कर्म योग को इसमें सर्व श्रेष्ठ योग कहा गया है । भागवत महापुराण में भावयोग पर विस्तृत चर्चा मिलती है । इसी को भक्ति नाम दिया गया है । भक्ति पर गौड़ीय सम्प्रदाय के रूप गोस्वामी और जीव गोस्वामी के उज्ज्वल नीलमणि और हरि भक्ति रसामृतसिन्धु अपने आप में संपूर्ण ग्रन्थ हैं । इसके अतिरिक्त संस्कृतेतर भाषाओं में भी योग पर अनेक ग्रन्थ लिखे गये हैं । वस्तुतः पतञ्जलि का योग सूत्र सभी योग विषयक ग्रन्थों का आधार है और उसका आधार सांख्य दर्शन है । कुल मिला कर योग पाँच नामों से मिलता है । हठ योग, भाव योग, कर्म योग, ज्ञान योग और राज योग । इनमें ज्ञान, कर्म, भाव और राज योग वस्तुतः सहज योग ही हैं । सहज योग की चर्चा जिन ग्रन्थों में मिलती है उनमें इसकी विधि सहज योग से कुछ भी अलग नहीं है । स्वामी विवेकानन्द ने योग को इसी नाम से प्रचारित किया था । वस्तुतः योग को ये विभिन्न नाम मनुष्य के प्रकृतिक गुणों या चेतना की विभिन्न शक्तियों को ध्यान में रख कर दिये गये हैं । ज्ञान योग सतोगुणी व्यक्तियों के लिये, कर्म योग रजोगुणी व्यक्तियों के लिये तथा भाव योग तमोगुणी+रजोगुणी व्यक्तियों के लिये है । राजयोग तो सभी के लिये है । हठ योग शुद्ध तमो गुणी व्यक्तियों के लिये है । या कहें प्राण शक्ति से हठ योग, बुद्धि शक्ति से ज्ञान योग, मनः शक्ति से ध्यान योग, क्रिया शक्ति से कर्म योग और भाव शक्ति से भाव योग बना । इसमें ध्यान योग ही सहज योग है ।

“योगश्चितवृत्तिनिरोध:”
अष्टांग योग महर्षि पतंजलि के अनुसार चित्तवृत्ति के निरोध का नाम योग है—
“योगश्चितवृत्तिनिरोध:”
इसकी स्थिति और सिद्धि के निमित्त कतिपय उपाय आवश्यक होते हैं जिन्हें ‘अंग’ कहते हैं और जो संख्या में आठ माने जाते हैं।
अष्टांग योग के अंतर्गत प्रथम पांच अंग — “यम, नियम, आसन, प्राणायाम तथा प्रत्याहार” जो ‘बहिरंग’नाम से प्रसिद्ध हैं।
तीन अंग — “धारणा, ध्यान, समाधि” ‘अंतरंग’ नाम से प्रसिद्ध हैं।
बहिरंग साधना यथार्थ रूप से अनुष्ठित होने पर ही साधक को अंतरंग साधना का अधिकार प्राप्त होता है।
‘यम’ और ‘नियम’ वस्तुत: शील और तपस्या के द्योतक हैं।
1–यम का अर्थ है– संयम, जो पांच प्रकार का माना जाता है , जिन्हें पांच सामाजिक नैतिकता कह सकते हैं —
(क) अहिंसा – शब्दों से, विचारों से और कर्मों से किसी को अकारण हानि नहीं पहुँचाना।
(ख) सत्य – विचारों में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना, जैसा विचार मन में है वैसा ही प्रामाणिक बातें वाणी से बोलना।
(ग) अस्तेय – चोर – प्रवृति का न होना।

(घ) ब्रह्मचर्य के दो अर्थ हैं—-
1.चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना।
2.सभी इन्द्रिय-जनित सुखों में संयम बरतना।

(च) अपरिग्रह — आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं की इच्छा नहीं करना।

2-नियम——- नियम के भी पांच प्रकार होते हैं,जिन्हें पाँच व्यक्तिगत नैतिकता कह सकते हैं —-
(क) शौच – शरीर और मन की शुद्धि।
(ख) संतोष – संतुष्ट और प्रसन्न रहना।
(ग) तप – स्वयं से अनुशाषित रहना।
(घ) स्वाध्याय – “मोक्षशास्त्र का अनुशलीन या प्रणव का जप,आत्मचिंतन करना।
(च) ईश्वर-प्रणिधान – ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा होनी चाहिए।

3-आसन से तात्पर्य है—- योगासनों द्वारा शरीरिक नियंत्रण आसन शरीर को साधने का तरीका है, स्थिर और सुख देने वाले बैठने के प्रकार—“स्थिर सुखमासनम्‌” जो देहस्थिरता की साधना है।

4-प्राणायाम—– आसन जप होने पर श्वास प्रश्वास की गति के विच्छेद का नाम प्राणायाम है, बाहरी वायु का लेना श्वास और भीतरी वायु का बाहर निकालना प्रश्वास कहलाता है, प्राणायाम प्राण स्थैर्य की साधना है। इसके अभ्यास से प्राण में स्थिरता आती है और साधक अपने मन की स्थिरता के लिए अग्रसर होता है।
प्राणायाम दो शब्दों के योग से बना है- (प्राण+आयाम) पहला शब्द “प्राण” है दूसरा “आयाम”।
प्राण का अर्थ जो हमें शक्ति देता है या बल देता है।
आयाम का अर्थ जानने के लिये इसका संधि विच्छेद करना होगा क्योंकि यह दो शब्दों के योग (आ+याम) से बना है।
इसमें मूल शब्द ‘”याम” ‘ है ‘आ’ उपसर्ग लगा है।
याम का अर्थ ‘गमन होता है और ‘”आ” ‘ उपसर्ग ‘उलटा ‘ के अर्थ में प्रयोग किया गया है अर्थात आयाम का अर्थ उलटा गमन होता है।
अतः प्राणायाम में आयाम को ‘उलटा गमन के अर्थ में प्रयोग किया गया है, इस प्रकार प्राणायाम का अर्थ ‘प्राण का उलटा गमन होता है।
यहाँ यह ध्यान देने कि बात है कि प्राणायाम प्राण के उलटा गमन के विशेष क्रिया की संज्ञा है न कि उसका परिणाम, अर्थात प्राणायाम शब्द से प्राण के विशेष क्रिया का बोध होना चाहिये।
प्राणायाम के बारे में बहुत से ऋषियों ने अपने-अपने ढंग से कहा है लेकिन सभी के भाव एक ही है जैसे पतन्जलि का प्राणायाम सूत्र एवं गीता में जिसमें पतन्जलि का प्राणायाम सूत्र महत्वपूर्ण माना जाता है—–
“तस्मिन सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेद:प्राणायामः”
अर्थात श्वास प्रश्वास के गति को अलग करना प्राणायाम है।
इस सूत्र के अनुसार प्राणायाम करने के लिये सबसे पहले सूत्र की सम्यक व्याख्या होनी चाहिये लेकिन पतंजलि के प्राणायाम सूत्र की व्याख्या करने से पहले हमे इस बात का ध्यान देना चाहिये कि पतंजलि ने योग की क्रियाओं एवं उपायें को योगसूत्र नामक पुस्तक में सूत्र रूप से संकलित किया है ।
सूत्र का अर्थ ही होता है —- एक निश्चित नियम जो गणितीय एवं विज्ञान सम्मत हो, यदि सूत्र की सही व्याख्या नहीं हुई तो उत्तर सत्य से दूर एवं परिणाम शून्य होगा, यदि पतंजलि के प्राणायाम सूत्र के अनुसार प्राणायाम करना है तो सबसे पहले उनके प्राणायाम सूत्र—-
“तस्मिन सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेद:प्राणायाम:”
सम्यक व्याख्या होनी चाहिये जो शास्त्रानुसार,विज्ञान सम्मत,तार्किक,एवं गणितीय हो।
इसी व्याख्या के अनुसार क्रिया करना होगा, इसके लिये सूत्र में प्रयुक्त शब्दों का अर्थबोध होना चाहिये तथा उसमें दी गयी गति विच्छेद की विशेष युक्ति को जानना होगा।
इसके लिये पतंजलि के प्राणायाम सूत्र में प्रयुक्त शब्दो का अर्थ बोध होना चाहिये।
प्राणायाम प्राण अर्थात् साँस आयाम याने दो साँसो मे दूरी बढ़ाना, श्‍वास और नि:श्‍वास की गति को नियंत्रण कर रोकने व निकालने की क्रिया को कहा जाता है।
श्वास को धीमी गति से गहरी खींचकर रोकना व बाहर निकालना प्राणायाम के क्रम में आता है।
श्वास खींचने के साथ भावना करें कि प्राण शक्ति, श्रेष्ठता श्वास के द्वारा अंदर खींची जा रही है, छोड़ते समय यह भावना करें कि हमारे दुर्गुण, दुष्प्रवृत्तियाँ, बुरे विचार प्रश्वास के साथ बाहर निकल रहे हैं।
हम साँस लेते है तो सिर्फ़ हवा नहीं खीचते तो उसके साथ ब्रह्माण्ड की सारी उर्जा को उसमे खींचते है।
आपको लगेगा की सिर्फ़ साँस खीचने से ऐसा कैसा होगा।
हम जो साँस फेफड़ों में खीचते है, वो सिर्फ़ साँस नहीं रहती उसमे सारे ब्रह्माण्ड की सारी उर्जा समायी रहती है।
जो साँस आपके पूरे शरीर को चलाना जनती है, वो आपके शरीर को दुरुस्त करने की भी ताकत रखती है।
प्राणायाम गायत्री महामंत्र के उच्चारण के साथ किया जाना चाहिए।
5-प्रत्याहार—- इन्द्रियों को अंतर्मुखी करना महर्षि पतंजलि के अनुसार जो इन्द्रियां चित्त को चंचल कर रही हैं, उन इन्द्रियों का विषयों से हट कर एकाग्र हुए चित्त के स्वरूप का अनुकरण करना प्रत्याहार है।
प्रत्याहार से इन्द्रियां वश में रहती हैं और उन पर पूर्ण विजय प्राप्त हो जाती है।
अत: चित्त के निरुद्ध हो जाने पर इन्द्रियां भी उसी प्रकार निरुद्ध हो जाती हैं, जिस प्रकार रानी मधुमक्खी के एक स्थान पर रुक जाने पर अन्य मधुमक्खियां भी उसी स्थान पर रुक जाती हैं।
प्राण स्थैर्य और मन:स्थैर्य की मध्यवर्ती साधना का नाम ‘प्रत्याहार’ है।
प्राणायाम द्वारा प्राण के अपेक्षाकृत शांत होने पर मन का बहिर्मुख भाव स्वभावत: कम हो जाता है, फल यह होता है कि इंद्रियाँ अपने बाहरी विषयों से हटकर अंतर्मुखी हो जाती है।
इसी का नाम प्रत्याहार है — “प्रति = प्रतिकूल, आहार = वृत्त”।

6-धारणा —– एकाग्रचित्त होना अपने मन को वश में करना धारणा है ,जब मन की बहिर्मुखी गति निरुद्ध हो जाती है और अंतर्मुख होकर स्थिर होने की चेष्टा करता है। इसी चेष्टा की आरंभिक दशा का नाम “धारणा” है।
देह के किसी अंग पर ,जैसे हृदय में, नासिका के अग्रभाग पर,अथवा बाह्यपदार्थ पर ,जैसे इष्टदेवता की मूर्ति आदि पर,चित्त को लगाना ‘धारणा’ कहलाता है—-
“देशबन्धश्चितस्य धारणा”
ध्यान इसके आगे की दशा है।

7-ध्यान—- ध्यान या अवधान चेतन मन की एक प्रक्रिया है, जिसमें व्यक्ति अपनी चेतना बाह्य जगत् के किसी चुने हुए दायरे अथवा स्थलविशेष पर केंद्रित करता है।
यह अंग्रेजी “अटेंशन” के पर्याय रूप में प्रचलित है।
हिंदी में इसके साथ “देना”, “हटाना”, “रखना” आदि सकर्मक क्रियाओं का प्रयोग, इसमें व्यक्तिगत प्रयत्न की अनिवार्यता सिद्ध करता है।
ध्यान द्वारा हम चुने हुए विषय की स्पष्टता एवं तद्रूपता सहित मानसिक धरातल पर लाते हैं, जब उस देश विशेष में ध्येय वस्तु का ज्ञान एकाकार रूप से प्रवाहित होता है, तब उसे ‘ध्यान’ कहते हैं।
धारणा और ध्यान दोनों दशाओं में वृत्ति प्रवाह विद्यमान रहता है, परंतु अंतर यह है कि धारणा में एक वृत्ति से विरुद्ध वृत्ति का भी उदय होता है, परंतु ध्यान में सदृश वृत्ति का ही प्रवाह रहता है, विसदृश का नहीं।

8-समाधि—- ध्यान की परिपक्वावस्था का नाम ही समाधि है। ध्यान की उच्च अवस्था को समाधि कहते हैं।
हिन्दू, जैन, बौद्ध तथा योगी आदि सभी धर्मों में इसका महत्व बताया गया है। जब साधक ध्येय वस्तु के ध्यान मे पूरी तरह से डूब जाता है और उसे अपने अस्तित्व का ज्ञान नहीं रहता है तो उसे समाधि कहा जाता है।
पतंजलि के योगसूत्र में समाधि को आठवाँ (अन्तिम) अवस्था बताया गया है।
चित्त आलंबन के आकार में प्रतिभासित होता है, अपना स्वरूप शून्यवत्‌ हो जाता है और एकमात्र आलंबन ही प्रकाशित होता है।
यही समाधि की दशा कहलाती है, समाधि के बाद प्रज्ञा का उदय होता है और यही योग का अंतिम लक्ष्य है।
।।हर हर महादेव।।
-पंडित रमेश शर्मा सांकृत्यायन

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