*मुझे बचा लो, ये लोग मुझे मार डालेंगे- मुझे भी ले चलो।*
(किशनलाल शर्मा – लेखक)
एअर पोर्ट पर हजारों लोगों की भीड़ थी। अफगानिस्तान से नाटो गठबंधन की सेना की वापसी होते ही तालिबान ने वहां की निर्वाचित सरकार को सत्ता से बेदखल करके सत्ता हथिया ली थी।
नाटो के कुछ हजार सैनिकों को छोड़कर बाकी सब अफगानिस्तान से चले गये थे। जो सैनिक अब भी अफगानिस्तान में रह गये थे, उनके कब्जे में काबुल का एअरपोर्ट था। इसी एअरपोर्ट से विदेशी राजनयिकों और नागरिकों को निकाले जाने का अभियान रात दिन चलाया जा रहा था।
अफगानिस्तान में फिर से तालिबान राज कायम हो जाने पर वहां के नागरिक दहशत में थे और जान बचाने के लिए हजारों अफगानी वतन छोड़कर जाना चाहते थे। ऐसे ही लोगों ने एअर पोर्ट को चारों तरफ से घेरकर रखा था। इन हजारों लोगों में से कुछ लोग जैसे तैसे एअर पोर्ट के अंदर घुसने में भी कामयाब हो गये थे। इनमें से आबिदा भी एक थी।
आबिदा टेनिस की इंटरनेशनल खिलाड़ी थी। अपने देश में वह गोल्डन गर्ल के नाम से मशहूर थी। उसका जन्म तो पहले तालिबान राज में हुआ था। लेकिन उसने होश सम्भाला तब तालिबान राज का खात्मा हो चुका था। उसके पिता हामिद को तालिबानियों ने मार डाला था क्योंकि वह तालिबान की नीतियों की मुखालफत करता था। पिता की मौत के बाद मां ने ही उसे पाला पोसा था।
आबिदा की मां अमीना उसे तालिबान राज के बारे में बताती रहती थी। मां ने ही उसे बताया था कि तालिबान राज में औरतों को किसी तरह की आजादी नहीं थी। उनके पढऩे और काम करने पर प्रतिबंध था। वे खेलकूद नहीं सकती थी। बिना बुर्का के घर से बाहर नहीं जा सकती थी। औरतों पर तरह-तरह के प्रतिबंध थे और उनका उल्लंघन करने पर शरियां कानून के हिसाब से सजा दी जाती थी। औरतों पर कोड़े बरसाना तो आम बात थी।
लेकिन अमेरिका के नेतृत्व वाली नाटो सेना ने अफगानिस्तान से तालिबान की सत्ता को उखाड़ फेंका था। और अफगानिस्तान में लोकतंत्र की स्थापना की थी। चुनी हुयी सरकार ने औरतों को भी सब तरह की आजादी और अधिकार दिये थे। इसी का नतीजा था कि अमीना ने अपनी बेटी की रुचि को देखते हुए उसे टेनिस खिलाड़ी बनाया था।
आबिदा में जोश था, जुनून था और कुछ बनने की उत्कंठा। इसी का नतीजा था कि आबिदा प्रांत स्तर से राष्ट्र और अंतर्राष्ट्रीय स्तर की खिलाड़ी बन गयी थी। देश-विदेश में वह अनेक मेडल जीत चुकी थी। मान-सम्मान प्राप्त कर चुकी थी।
बीस साल पहले अमेरिका के ट्रेड सेंटर पर आतंकी हमला हुआ था। इस हमलों में सैकड़ों अमेरिकी नागरिक मारे गये थे। जनहानि के साथ-साथ अमेरिका की भारी आर्थिक क्षति के साथ पूरी दुनिया में उसकी फजीहत भी हुई थी। दुनिया के सबसे ताकतवर देश की सुरक्षा को भेदकर आतंकियों ने अमेरिका का मान मर्दन किया था।
इस आतंकी हमलों को अंजाम दिलाने वाला कोई और नहीं लादेन था। उसने बिन लादेन अमेरिका का पिट्ठू। लादेन को रुस के खिलाफ अमेरिका ने ही खड़ा किया था। और उसी लादेन ने अमेरिका की पीठ में छुरा भोंका था। और यह पता चलने पर कि इस हमले के पीछे लादेन का हाथ है। अमेरिका के नेतृत्व वाली नाटो सेना लादेन के खात्में के लिए अफगानिस्तान आ पहुंची। अमेरिकी सेना ने अफगानिस्तान से तालिबान शासन को उखाड़ फेंका। और अफगानिस्तान में लोकतंत्र की नींव डाली। चुनी हुयी सरकार सत्ता में आयी। तालिबान के राज में देश में शरिया कानून लागू था। औरतों पर अनेक तरह के प्रतिबंध लगे हुये थे। उन्हें शिक्षा और नौकरी का अधिकार नहीं था। तालिबानी लड़ाके जबरदस्ती जवान औरतों को उठाकर ले जाते थे। जबरदस्ती उनसे निकाह कर लेते थे। औरतों का जीवन नारकीय था।
लेकिन तालिबान के शासन का अंत होने पर अफगानी नागरिकों ने राहत की सांस ली थी। दूसरे लोकतांत्रिक देशों के नागरिकों की तरह उन्हें भी जीने का अधिकार और आजादी मिली थी।
लादेन नाटो की फौजों से बचकर भागता रहा। साल दर साल अमेरिकी फौजें उसे खोजती रही। पर वह न जाने कहां जा छिपा था। उसका कोई सुराग नहीं मिल रहा था। लाखों डालर का इनाम भी उस पर घोषित किया जा चुका था। पर वह न जाने किस बिल में छिपकर बैठा था। धीरे-धीरे दो दशक बीत गये।
और फिर एक दिन पता चल ही गया कि वह पाकिस्तान में वहां की फौज के संरक्षण में पनाह लिए हुए है। और अमेरिका के दुश्मन का पता चलने पर एक रात को अमेरिकी कमांडों ने एक ऑपरेशन को अंजाम देकर उसे मौत के घाट उतार दिया।
अपने दुश्मन का काम तमाम करने के बाद अमेरिका को लगने लगा कि उसका उद्देश्य पूरा हो गया है। इसलिए अब उसे अफगानिस्तान में सेना रखकर धन बर्बाद करने की जरूरत नहीं है। तब अमेरिका अफगानिस्तान से अपनी सेनाओं की वापसी की योजना बनाने लगा। उसने नाटो की सेनाओं की वापसी की तारीख घोषित कर दी। और धीरे-धीरे नाटो सेनाओं की वापसी भी शुरु हो गयी।
अमेरिकी फौज ने अफगानिस्तान से तालिबान को खदेड़ दिया था। पड़ोसी देश पाकिस्तान ने उन्हें पनाह दे रखी थी। जैसे ही नाटो सेना की वापसी शुरु हुयी, तालिबान सिर उठाने लगा। नाटो की फौज अफगानिस्तान से जाती रही। अफगानी फौज और तालिबानी लड़ाकों में संघर्ष तेज होता गया। आधुनिक हथियारों से लैस प्रशिक्षित अफगानी सेना तालिबानी लड़ाकों से हार गयी और काबुल पर तालिबान का कब्जा हो गया।
तालिबान के जुल्म-अत्याचार-उत्पीडऩ को अफगानी नागरिक पहले भी झेल चुके थे। सबसे ज्यादा जुल्म-अत्याचार औरतों ने झेले थे। उनसे बचने के लिए लोग अपने-अपने वतन से जाना चाहते थे।
आबिदा का भले ही देश-विदेश में नाम था लोकिन उसकी पुकार नहीं सुनी गयी और अमेरिकी सैनिकों को ले जाने वाला आखिरी विमान हवाई पट्टी पर रेंगने लगा। कुछ लोग अब भी इस उम्मीद में विमान के पीछे भागने लगे कि शायद विमान रुक जाये और उन्हें बैठा ले। आबिदा भी उनमें थी। पर व्यर्थ। जब विमान ऊपर उठने लगा तो आबिदा छलांग लगाकर विमान के ऊपर पहुंच गयी और उससे लिपट गयी।
आबिदा अपने वतन से बेइंतहा प्यार करती थी। लेकिन बदले हालात में जान बचाने के लिए देश से भाग जाना चाहती थी। विमान के अंदर तो नहीं बैठ सकी लेकिन उसके ऊपर चढऩे में सफल हो गयी थी।
और विमान रनवे को छोड़कर ऊपर आ गया था। उड़ते विमान पर अपने को जैसे-तैसे नियंत्रित रख पा रही थी। ऊपर ऑक्सीजन की कमी, शरीर पर पड़ता हवा का दबाव और उड़ते विमान पर झूलता शरीर। ज्यादा देर तक वह अपने को नियंत्रित न रख सकी और उड़ते विमान से नीचे आ गिरी।
आबिदा जान बचाने के लिए जिस वतन को छोड़कर भाग जाना चाहती थी। उसी पर उसकी मृतदेह पड़ी थी। (विभूति फीचर्स)