*वह भी एक जमाना था-किशन खंडेलवाल की एक कविता*
देव भूमि जे के न्यूज –
वह भी एक जमाना था जब तेरा घर भी मेरा था।
मेरे घर का क्या कहना वह भी तो सब तेरा था।।
घर क्या थे बस छप्पर थे छप्पर शीश महल से थे।
मिट्टी से सब पुते हुए सुंदर ताज महल से थे।।
मॉं ममता की मूरत थी सागर से गहरे बापू थे।
खुशियों का खजाना दादाजी हरे भरे वो टापू थे।।
गाएं थी कुछ बछड़े थे हर घर में दूध मलाई थी।
रोज खिलाती अम्मा फिर भी चोरी करके खाई थी।।
घर- घर में घर बने हुए और सभी प्यार से रहते थे।
दादा के पांव दबाते थे वो कहानी किस्से कहते थे।।
कभी चीमटा कभी फूॅंकनी मांग मांग कर लाते थे।
सारे बच्चे एक साथ में बड़े प्यार से खाते थे।।
गुसलखाना कभी ना देखा लोटा लेकर जाते थे।
बालू से मांज मांज कर लोटा चमका कर घर लाते थे।।
कच्चे आंगन लकड़ी से चूल्हे पर रोटी बनती थी।
छोटी बहना खाने पर आकर रोज झगड़ती थी।।
कहती भूख लगी है भैया मैं तो पहले खाऊंगी।
पहली रोटी अम्मा की उसका भोग लगाऊंगी।।
धक्कम धक्का मुक्केबाजी भाइयों में भी होता था।
भैया करते मेरी पिटाई मैं सुबक-सुबक कर रोता था।।
हमने देखे दादा दादी मॉं बापू का प्यार मिला।
बहुत पिटाई खाई हमने लेकिन बहुत दुलार मिला।।
घर कच्चे थे दिल के सच्चे घर में सभी प्राणी थे।
घड़ी नहीं पर वक्त बहुत था सारे राजा रानी थे।।
घर में हुकुम चले अम्मा का बापू को अधिकार मिला।
कूट-कूट कर अदरक सा हमको पूरा प्यार मिला।।
वो बचपन बचपन की बातें हम
पचपन में करते हैं।
हाथ लगाने से बच्चों को अब माता-पिता भी डरते हैं।।
मोबाइल पर खेल खेलते गुल्ली डंडा गायब है।
पिज्जा बर्गर खाकर लगता बच्चा नहीं यह साहिब है।।
यार बुलाते पापा को मम्मी को यार बुलाते हैं।
लेटे- लेटे पढ़ते रहते पड़े- पड़े सब खाते हैं।।
मंगल पर मंगल खोज रहे जीवन से मंगल चला गया।
सब कुछ देकर बच्चों को लगता बापू छला गया।।
किशन खंडेलवाल।
भुवनेश्वर।
9437572 413