*चन्द्रमा , श्रीकृष्ण और लक्ष्मी की आराधना का पर्व है शरद पूर्णिमा*
देव भूमि जे के न्यूज –
(संदीप सृजन-विभूति फीचर्स)
भारतीय संस्कृति की परम्पराएँ और त्यौहार अध्यात्मिक विकास के साथ साथ प्रकृति संरक्षक और मानव समाज ही नहीं अपितु सृष्टि के सभी जीवों के लिए वरदान है। पूर्णत: विज्ञान सम्मत है। आधुनिकता के दौर और पश्चिम के प्रभाव ने हमें हमारी जड़ों से दूर करने का भरसक प्रयास किया। लेकिन हमारी संस्कृति की जड़े इतनी गहरी हैं कि आज पश्चिमी संस्कृति भारत की ओर बढ़ रही है और हमारे त्योहारों पर रिसर्च कर रही है।
*क्या महत्व है शरद पूर्णिमा का-
अध्यात्म और संस्कृति के चैतन्य दिन अश्विन मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा कहा जाता है। शरद पूर्णिमा का हिन्दू धर्म में विशेष महत्व है। ऐसी मान्यता है कि शरद पूर्णिमा का व्रत करने से सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। शरद पूर्णिमा को कोजागरी पूर्णिमा या रास पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है। कहा जाता है इस दिन चंद्रमा धरती पर अमृत की वर्षा करता है। इस दिन प्रेमावतार भगवान श्रीकृष्ण, धन की देवी मां लक्ष्मी और सोलह कलाओं वाले चंद्रमा की उपासना से अलग-अलग वरदान प्राप्त किए जाते हैं।
शरद पूर्णिमा का चंद्रमा और साफ आसमान मानसून के पूरी तरह चले जाने का प्रतीक है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इसी दिन मां लक्ष्मी का जन्म हुआ था इसलिए धन प्राप्ति के लिए भी ये तिथि सबसे उत्तम मानी जाती है। इसे ‘कोजागर पूर्णिमा’ भी कहा जाता है। कहते है इस दिन धन की देवी लक्ष्मी रात के समय आकाश में विचरण करते हुए कहती हैं, ‘को जाग्रति’, संस्कृत में को जाग्रति का मतलब है कि ‘कौन जगा हुआ है?’ माना जाता है कि जो भी व्यक्ति शरद पूर्णिमा के दिन रात में जगा होता है मां लक्ष्मी उन्हें उपहार देती हैं।
*श्री कृष्ण और शरद पूर्णिमा*
श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार शरद पूर्णिमा के दिन भगवान कृष्ण ने ऐसी बांसुरी बजाई कि उसकी जादुई ध्वनि से सम्मोहित होकर वृंदावन की गोपियां उनकी ओर खिंची चली आई थी। ऐसा माना जाता है कि कृष्ण ने उस रात हर गोपी के लिए एक कृष्ण बनाया। पूरी रात कृष्ण गोपियों के साथ नाचते रहे, जिसे ‘महारास’ कहा जाता है। मान्यता है कि कृष्ण ने अपनी शक्ति के बल पर उस रात को भगवान ब्रह्मा की एक रात जितना लंबा कर दिया। ब्रह्मा की एक रात का मतलब मनुष्य की करोड़ों रातों के बराबर होता है।
यही वह दिन है जब चंद्रमा अपनी 16 कलाओं से युक्त होकर धरती पर अमृत की वर्षा करता है। हिन्दू धर्म में मनुष्य के एक-एक गुण को किसी न किसी कला से जोड़कर देखा जाता है। माना जाता है कि 16 कलाओं वाला पुरुष ही सर्वोत्तम पुरुष है। कहा जाता है कि श्री हरि विष्णु के अवतार भगवान श्रीकृष्ण ने 16 कलाओं के साथ जन्म लिया था। राम 12 कलाओं के ज्ञाता थे तो भगवान श्रीकृष्ण सभी 16 कलाओं के ज्ञाता हैं। चंद्रमा की सोलह कलाएं होती हैं।उपनिषदों के अनुसार 16 कलाओं से युक्त व्यक्ति ईश्वरतुल्य होता है।
*चन्द्रमा की सोलह कलाएं*
हमने सुन रखा है कि कुमति, सुमति, विक्षित, मूढ़, क्षित, मूर्च्छित, जाग्रत, चैतन्य, अचेत आदि ऐसे शब्दों को जिनका संबंध हमारे मन और मस्तिष्क से होता है, जो व्यक्ति मन और मस्तिष्क से अलग रहकर बोध करने लगता है वहीं 16 कलाओं में गति कर सकता है।
*चन्द्रमा की सोलह कला अमृत, मनदा, पुष्प, पुष्टि, तुष्टि, ध्रुति, शाशनी, चंद्रिका, कांति, ज्योत्सना, श्री, प्रीति, अंगदा, पूर्ण , पूर्णामृत और अमा कहलाती हैं।*
इसी को प्रतिपदा, दूज, एकादशी, पूर्णिमा आदि भी कहा जाता है। उपरोक्त चंद्रमा के प्रकाश की 16 अवस्थाएं हैं उसी तरह मनुष्य के मन में भी एक प्रकाश है। मन को चंद्रमा के समान ही माना गया है। जिसकी अवस्था घटती और बढ़ती रहती है। चंद्र की इन सोलह अवस्थाओं से 16 कला का चलन हुआ। व्यक्ति का देह को छोड़कर पूर्ण प्रकाश हो जाना ही प्रथम मोक्ष है। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी तीन अवस्थाओं का ही बोध होता है:- जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति। जगत तीन स्तरों वाला है- एक स्थूल जगत, जिसकी अनुभूति जाग्रत अवस्था में होती है। दूसरा सूक्ष्म जगत, जिसका स्वप्न में अनुभव करते हैं और तीसरा कारण जगत, जिसकी अनुभूति सुषुप्ति में होती है।
सोलह कलाओं का अर्थ संपूर्ण बोधपूर्ण ज्ञान से है। मनुष्य ने स्वयं को तीन अवस्थाओं से आगे कुछ नहीं जाना और न समझा। प्रत्येक मनुष्य में ये 16 कलाएं सुप्त अवस्था में होती है। अर्थात इसका संबंध अनुभूत यथार्थ ज्ञान की सोलह अवस्थाओं से है। 16 कलाएं दरअसल बोध प्राप्त योगी की भिन्न-भिन्न स्थितियां हैं। बोध की अवस्था के आधार पर आत्मा के लिए प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक चन्द्रमा के प्रकाश की 15 अवस्थाएं ली गई हैं। अमावास्या अज्ञान का प्रतीक है तो पूर्णिमा पूर्ण ज्ञान का।
*आयुर्वेद में शरद पूर्णिमा का महत्व*
शरद पूर्णिमा की चमकीली रात का धार्मिक महत्व तो है ही वैज्ञानिक महत्व भी है। आयुर्वेद के अनुसार शरद पूर्णिमा के दिन औषधियों की स्पंदन क्षमता अधिक होती है। रसाकर्षण के कारण जब अंदर का पदार्थ सांद्र होने लगता है, तब रिक्तिकाओं से विशेष प्रकार की ध्वनि उत्पन्न होती है। शरद पूर्णिमा की रात में आकाश के नीचे खीर रखने की भी परंपरा है। इस रात लोग खीर बनाते हैं और फिर 12 बजे के बाद उसे प्रसाद के तौर पर ग्रहण करते हैं। इस रात चंद्रमा आकाश से अमृत बरसाता है इसलिए खीर भी अमृत वाली हो जाती है। ये अमृत वाली खीर कई रोगों को दूर करने की शक्ति रखती है। खीर को चांदी के पात्र में सेवन करना चाहिए। चांदी में प्रतिरोधकता अधिक होती है। इससे विषाणु दूर रहते हैं। अध्ययन के अनुसार दुग्ध में लैक्टिक अम्ल और अमृत तत्व होता है। यह तत्व किरणों से अधिक मात्रा में शक्ति का शोषण करता है। चावल में स्टार्च होने के कारण यह प्रक्रिया और आसान हो जाती है। इसी कारण ऋषि-मुनियों ने शरद पूर्णिमा की रात्रि में खीर खुले आसमान में रखने का विधान किया है। यह परंपरा विज्ञान पर आधारित है। लंकाधिपति रावण शरद पूर्णिमा की रात चंद्र किरणों को दर्पण के माध्यम से अपनी नाभि पर ग्रहण करता था। इस प्रक्रिया से उसे पुनर्योवन शक्ति प्राप्त होती थी।(विभूति फीचर्स)